Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [पयडिविहत्ती २ ६७८. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु मोहविहत्ति० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस अपज्जत्त-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-तसअपज्जत्त-बादरपुढवि०पज्जत्त-बादरआउ०पज्जत्त-बादरतेउ०पज्जत-बादरवणप्फदि० पत्तेय पज्जत्त-बादरणिगोदपदिदिपज-वेउव्विय०-वेउवियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०-सामाइय-छेदो०-परिहा०सुहुम०-संजदासंजद-तेउ०-पम्म०-वेदग०-उवसम-सासण-सम्मामिच्छेत्ति वत्तव्वं । मोहनीय विभक्ति वाले जीवोंकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि उनका वर्तमान निवास स्थान लोकका असंख्यातवां भाग है । मोहनीय अविभक्तिवाले जीवोंके क्षेत्रका प्ररूपण करते समय ऊपर तीन प्रकारका क्षेत्र कहा है। उनमें लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र क्षीणमोह, समुद्धातरहित केवली या दंड और कपाट समुद्धातको प्राप्त केवली, अयोगकेवली और सिद्ध जीवोंके क्षेत्रकी अपेक्षा कहा है, क्योंकि, इनका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें है। लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्र प्रतरसमुद्धातकी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि,प्रतरसमुद्धातको प्राप्त केवलीने, जगश्रेणीप्रमाण जगप्रतरोंमेंसे ६३३१२ ५.८६३६० योजन प्रमाण जगप्रतरोंको घटा देने पर जो लोकका बहुभाग प्रमाण क्षेत्र रहता है उसे वर्तमान कालमें स्पर्श किया है । तथा सर्वलोक क्षेत्र लोकपूरण समुद्धातको प्राप्त केवलीके वर्तमान निवासकी अपेक्षासे कहा है । तथा जिन स्थानोंकी प्रधानतासे ओघक्षेत्रका कथन किया है वे स्थान काययोगी, भव्य और अनाहारी जीवोंके भी पाये जाते हैं, अतः इनका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान कहा है।
७८. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसीप्रकार सभी प्रथमादि सातों नरकोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, त्रस लब्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिकपर्याप्त, बादर तैजस्कायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, बादरनिगोदप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्त, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाकयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, संयतासंयत, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम सम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि जीवोंके लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ-ऊपर कहे गये मार्गणास्थानोंमें संभव पदोंके दिखलानेके लिये नीचे कोष्ठक दिया जाता है
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