Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गां ० २२ ]
मूल डिविहत्ती खेत्तागुगमो
केत्तिया ? अनंता । एवं खइयसमाइहीणं वत्तव्वं । एवं परिमाणं समत्तं ।
९७७, खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो, ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहविहत्ति० केवडि खेते ? सव्वलोगे । मोहअविहत्ति ० केव० खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे, असंखेज्जेसु वा भागेसु, सव्वलोगे वा । एवं कायजोगि भव सिद्धिय-अणाहारित्ति । कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ - मोहनीय कर्मसे युक्त अपगतवेदी जीव नौंवें गुणस्थानके अवेदभागसे ग्यारहवें गुणस्थान तक और मोहनीय कर्मसे युक्त कषायरहित जीव उपशान्तमोह गुणस्थान में ही पाये जाते हैं । अतएव इन दोनोंका प्रमाण संख्यात कहा है । तथा शेष सभी ऊपरके गुणस्थानवर्ती और सिद्ध जीव अपगतवेदी और अकषायी होते हुए मोहनीय कर्म से रहित होते हैं अतः इन दोनोंका प्रमाण अनन्त कहा है । संसारस्थ सम्यग्दृष्टियों और क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का प्रमाण असंख्यात है, किन्तु उसमें सिद्धोंका प्रमाण मिलाकर अनन्त कहा है । इन दोनोंमें मोहनीय कर्मसे युक्त जीवोंका ग्रहण करते समय चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तकके जीव ही लेना चाहिये । अतः सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दष्टियों में मोहनीय कर्म से युक्त जीव असंख्यात होते हैं । तथा मोहनीय कर्मसे रहित जीव अनन्त होते हैं ।
इसप्रकार परिमाणानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
७७. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका होता है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोक में रहते हैं। मोहनीयं अविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में, लोकके असंख्यात बहुभाग प्रमाण क्षेत्रमें और सर्व लोक में रहते हैं । इसी प्रकार काययोगी, भव्य और अनाहारी जीवोंके कथन करना चाहिये ।
विशेषार्थ - वर्तमान निवासस्थानको क्षेत्र कहते हैं । वह जीवोंकी स्वस्थान, समुद्धा और उपपादरूप अवस्थाओंके भेदसे तीन प्रकारका होता है । स्वस्थान के स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान इस प्रकार दो भेद हैं । समुद्धात भी वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवलिके भेदसे सात प्रकारका है। यहां जीवोंकी उत्तरभेदरूप इन दस अवस्थाओं में प्रत्येक पदकी अपेक्षा क्षेत्रका विचार न करके सामान्यरीति से विचार किया गया है । अतः जिस स्थानमें जिस पदकी अपेक्षा उत्कृष्ट क्षेत्रकी संभावना है उसका ही सामान्य प्ररूपणा में ग्रहण कर लिया गया है। मोहनीय विभक्तिवाले जीवोंके क्षेत्रका कथन करते समय मिध्यादृष्टि जीवोंकी प्रधानता है, क्योंकि, मिध्यादृष्टि जीवोंका वर्तमान निवास स्थान सर्वलोक है। सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्त मोह तक के
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