Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तीए खेत्ताणुगमो ६ ७६. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मोहविहत्ति० केवडि खेत्ते ? सव्वलोए । एवं
मार्गणास्थान स्व. स्व. वि.ख. वेद० कषा. वैक्रि. ते० आ. मा. उप. सभी नारकी, पंचेन्द्रिय ति;पं० पर्याप्त ति०, पं० योनिमती ति०, सभी देव, उपशम । "
" " " " " x x " | " i स०, सासादन, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, वेदकसम्यग्दृष्टि, पीत लेश्यावाले, पद्मले० वैक्रियिककाययोग, विभंगज्ञा० विकलत्रय सा० और।
पर्याप्त विकलत्र० ल०, पंचे० ति० ल०, मनु० ल०, पंचे० ल०, बा० पृ० प०, बा० ज० प०,
" x " " x | x x " " प्र० वन०प०, सप्र० प्र० व० प०, त्रस ल०, सामायिक, छेदो० " , " संयतासंयत, परिहा० । " सम्यम्मिथ्या दृष्टि
आहारककाययोग आहारकमिश्र | " x x x x x x x x सूक्ष्मसांपराय
xxxx x x "x इसप्रकार उक्त मार्गणाओंमें कोष्ठकके अनुसार जो पद बताये हैं, उन सब पदोंकी अपेक्षा वर्तमान क्षेत्र सामान्य लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है अधिक नहीं।
७६.तियंचगतिमें तिथंचोंमें मोहनीय विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व
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