Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२]
मूलपयडिविहत्तीए कालो ६५६. संजमाणुवादेण संजद० विहत्ती० अविहत्ती० जह० अंतोमुहुत्तं उक्कस्सेण पुचकोडी देसूणा । सामाइयछेदो० विहत्ती केव० ? जह० एगसमओ उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। परिहारवि० विहत्ती केव० ? जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० पुवकोडी देसूणा । एवं संजदासंजद० । सुहुमसांपराइय० विहत्ती केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्यदृष्टि होकर द्वितीय समयमें मरकर जब तिर्यंच या मनुष्य हो जाता है, तब उसके विभंगज्ञानके साथ सासादन गुणस्थानमें मोहनीय विभक्ति एक समय तक देखी जाती है। विभंगज्ञान अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होता है इसलिये अपर्याप्त अवस्थाके कालको कम कर देने पर सातवें नरकमें विभंगज्ञानके साथ मोहनीय विभक्ति देशोन तेतीस सागर काल तक प्राप्त होती है। मतिज्ञानादि तीनों ज्ञानोंके साथ मोहनीय विभक्ति अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है यह तो स्पष्ट है पर उत्कृष्ट रूपसे साधिक छियासठ सागरोपम काल तक कैसे पाई जाती है इसका स्पष्टीकरण करते हैं-किसी एक देव या नारकी जीवने उपशम सम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्व प्राप्त किया और वह उसके साथ वहां अन्तमुहूर्त रहा । अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटिकी आयु वाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः क्रमसे बीस सागर आयुवाले देवोंमें, पूर्व कोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें, वाईस सागर आयुवाले देवोंमें और पूर्वकोटिप्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। पुनः यहां क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिका प्रारंभ करके चौबीस सागर आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहांसे आकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अत्यल्प आयुके शेष रहने पर क्षपक श्रेणीका आरोहण करके क्षीणकषायी हो गया। उसके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानके साथ साधिक छयासठ सागर काल तक मोहनीय विभक्ति पाई जाती है। यहां साधिकसे चार पूर्वकोटि कालका ग्रहण किया है। इन तीनों ज्ञानोंके साथ मोहनीय विभक्तिका अभाव अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है यह स्पष्ट ही है। कोई एक मनःपर्ययज्ञानी मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्तिके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालमें क्षीणकषायी हो जाय तो उसके मन:पर्ययज्ञानके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक मोहनीय विभक्ति पाई जाती है। पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस मनुष्यने आठ वर्षकी वयमें ही संयमके साथ मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके देशोन पूर्वकोटि काल तक मनःपर्ययज्ञानके साथ मोहनीय विभक्ति पाई जाती है।
५६.संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंके मोहनीय विभक्ति और मोहनीय अविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोनपूर्वकोटि है। सामायिक और छेदोपस्थापना संयमको प्राप्त संयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। परिहारविशुद्धि संयतोंके मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। इसीप्रकार
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