Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । यडिविहत्ती २ णवरि, जह० तिण्णि समया ।
एवं कालो समत्तो। ६४. अंतराणुगमेण दुविहो णिदेसो, ओघेण आदेसेण य । ओघेण विहत्तीणं णथि अंतरं । एवं जाव अणाहारएत्ति अप्पप्पणो पदाणं चिंतिऊण वत्तव्वं ।
एवमंतरं समत्तं । ६५. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण विहत्ती अविहत्ती० णियमा अस्थि । एवं मणुस्स-मणुसपजत्त-मणुसिणीपंचिंदिय-पंचिंदियपजत्त-तस-तसपजत्त-तिण्णिमण-तिण्णिवाचि०-कायजोगि-ओरा
विशेषार्थ-एक पर्यायमें आहारकका सबसे जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है। तथा उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो कि असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण होता है। इस विवक्षासे आहारक जीवके मोहनीय कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। मनुष्योंमें मोहनीय कर्मके अभावका जघन्य और उत्कृष्ट काल ऊपर कह आये हैं वही आहारकोंके मोहनीयके अभावका जघन्य
और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । विशेष बात यह है कि यहां चौदहवें गुणस्थानका काल घटाकर कथन करना चाहिये; क्योंकि चौदहवें गुणस्थानमें जीव अनाहारक होता है। ऊपर कार्मणकाययोगमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट काल तीन समय कह आये हैं वही अनाहारकोंके मोहनीय कर्मका जघन्य काल जानना चाहिये । अनाहारकके मोहनीयके अभावका जो जघन्य काल तीन समय बतलाया है वह प्रतर और लोकपूरण समुद्धातकी अपेक्षासे कहा है । तथा अनाहारकके मोहनीय अविभक्तिका उत्कृष्ट काल सादि-अनन्त होगा क्योंकि सिद्ध होनेपर भी जीव अनाहारक ही रहता है।
इसप्रकार कालानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ___६६४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय विभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार गति मार्गणासे लेकर अनाहारक मार्गणातक अपने अपने पदोंका चिन्तवन करके व्याख्यान करना चाहिये।
विशेषार्थ-मोहनीयका क्षय होकर पुनः उसकी प्राप्ति नहीं होती अतः ओघ और आदेशसे मोह विभक्तिका अन्तर काल नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार अन्तर समाप्त हुआ। ६६५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा विचार करने पर मोहनीय विभक्ति
और मोहनीय-अविभक्ति नियमसे है। इसीप्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिनी पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, सामान्य, सत्य और अनुभय ये तीन मनोयोगी
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