Book Title: Kasaypahudam Part 02
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
मूलपयडिविहत्तौए कालो ५२. देवगइए देवेसु मोहविहत्तीए णेग्इयभंगो। णवरि भवणवासियादि जाव सव्वसिद्धि त्ति सग सग जहण्णुकस्स हिदी भणिदव्वा । तं जहा, भवणादि जाव सबत्ति मोहविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण दसवस्ससहस्साणि दसवस्ससहस्साणि पलिदोपमस्स अहमभागो, पार्लदोवमं सादिरेयं, वे सत्त दस चोदस सोलस अहारस वीस वावीस तेवीस चउवीस पंचवीस छब्बीस सत्तावीस अट्ठावीस एगुणतीस तीस एकत्तीस वत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कम्सेण सागरोवमं सादिकाल तक रहकर यदि अन्य गतिको चला जाय तो जघन्यकाल उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है। इसी अपेक्षासे उक्त तीन प्रकारके मनुष्यों में मोहनीय कर्मका जघन्यकाल खुद्दाभवप्रहण व अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। उक्त तीनों प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयके असत्त्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि किसी एक क्षीणकषायी मनुष्यके सयोगी होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक रह, समुद्धातकर और योगनिरोधके साथ अयोगी होकर मोक्ष चले जाने में जितना काल लगता है उस सबका योग भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। तथा मोहनीय कर्मके अभावका उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि कहनेका कारण यह है कि किसी एक मनुष्यने गर्भसे लेकर आठ वर्षकी अवस्था होने पर संयमको प्राप्त किया और अन्तर्मुहूर्त प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें रहा । अनन्तर अधः करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसांपरायमें एक एक अन्तर्मुहूर्त रहकर क्षीणमोह हो गया। इस प्रकार क्षीणमोह होनेतक छह अन्तर्मुहूर्त होते हैं। तो भी इनका योग एक अन्तर्मुहर्त होता है। इस प्रकार एक पूर्वकोटिमें से आठवर्ष अन्तर्मुहूर्त कम कर देनेपर मोहनीय कर्मके असस्वके साथ मनुष्य पर्यायमें रहनेका उत्कृष्टकाल देशोन पूर्वकोटि प्राप्त हो जाता है।
६५२. देवगतिमें-देवोंमें मोहनीय विभक्तिका काल नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीय कर्मका जघन्य
और उत्कृष्टकाल क्रमसे अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। वह इस प्रकार है-भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीय विभक्तिका कितना काल है ? भवनवासियोंमें दस हजार वर्ष, व्यंतरोंमें दस हजार वर्ष, ज्योतिषियोंमें पल्यके आठवें भाग प्रमाण, सौधर्म-ऐशान कल्पमें साधिक पल्य, सनत्कुमार-माहेन्द्र में साधिक दो सागर, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरमें साधिक सात सागर, लान्तव-कापिष्ठमें साधिक दस सागर, शुक्रमहाशुक्रमें साधिक चौदह सागर, सतार-सहस्रारमें साधिक सोलह सागर, आनत-प्राणतमें साधिक अठारह सागर, आरण-अच्युतमें साधिक बीस सागर, नौ ग्रेवेयकोंमें क्रमसे साधिक बाईस, साधिक तेईस, साधिक चौबीस, साधिक पच्चीस, साधिक छब्बीस, साधिक सत्ताईस, साधिक अट्ठाईस, साधिक उनतीस और साधिक तीस सागर, नव अनुदिशोंमें साधिक इकतीस सागर और चार अनुत्तरोंमें साधिक बत्तीस सागर प्रमाण जघन्य काल
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