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* अरिहन्त ॐ
__ [ २१ विना ही स्वयंमेय प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं और स्वयमेव दीक्षा धारण करते हैं।
पुरिसुत्तमाणं-एक हजार आठ.उत्तम लक्षण आदि गुणों से युक्त होने के कारण जगत् के समस्त पुरुषों में भगवान् परमोत्तम पुरुष होते हैं।
पुरिससीहाणं-जैसे सिंह शूरवीर और निडर होता है, वनचरों को क्षुब्ध करता हुआ वन में स्वच्छन्द विचरता है, उसी प्रकार भगवान् संसार रूपी वन में निडर हो, पाखंडियों को क्षुब्ध करते हुए अपने द्वारा प्रवर्तित मार्ग में स्वयं प्रवृत्त होते हैं।
पुरिसवरपुण्डरीयाणं-जैसे हजारों पांखुडियों वाला श्वेत कमल (पुण्डरीक ) पानी और कीचड़ से अलिप्त रहता हुआ रूप और सुगन्ध में अनुपम होता है, उसी प्रकार भगवान् काम रूप कीचड़ और भोग रूप पानी से अलिप्त रहकर महा दिव्य रूप और महायश रूप सौरभ से अनुपम होते हैं ।*
पुरिसवरगंधहत्थीणं-पुरुषों में गन्धहस्ती के समान । जैसे गन्धहस्ती सेना में श्रेष्ठ और अपने शरीर की गन्ध से परचक्री की सेना को पलायन कराने वाला होता है तथा अस्त्र-शस्त्र के प्रहार की परवाह न करता हुआ आगे ही बढ़ता जाता है, उसी प्रकार भगवान् चतुर्विध सङ्घ में प्रधान, सदुपदेश रूप पराक्रम से और यश रूप गन्ध से पाखण्डियों को दूर करते. हुए, पाखण्डियों की तरफ से होने वाले परीषह और उपसर्ग की परवाह न करते हुए मुक्ति-पथ पर आगे ही बढ़ते चले जाते हैं । ___ लोगुत्तमाणं-लोक में उत्तम । बाह्य (अष्ट महाप्रातिहार्य आदि) और आंतरिक (अनन्त ज्ञान आदि) सम्पत्ति में भगवान् ही सम्पूर्ण लोक के समस्त प्राणियों में उत्तम हैं।
* जहा पउमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । . एवं अलित्तकामेणं, तं वयं बूम माहणं ॥ -उत्तराध्ययन अ० २५ ।
अर्थात् जैसे कमल जल में उत्पन्न होता है, फिर भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो महात्मा कामभोगों में लिप्त नहीं होता, वही सच्चा ब्राह्मण कहलाता है।