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अरिहन्त
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(१२) चौर्य:-मालिक की आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना चोरी है । अरिहन्त निरीह होने के कारण मालिक की आज्ञा के विना किसी भी पदार्थ को कदापि ग्रहण नहीं करते ।
(१३) मत्सरता:-दूसरे में किसी वस्तु या गुण. की अधिकता देखने से होने वाली ईर्षा को मत्सरता कहते हैं । अरिहन्त से अधिक गुणधारक तो कोई होता नहीं, अगर गोशालक के समान फितूर करके कोई अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न करता है तो भी अरिहन्त कभी ईर्षाभाव नहीं धारण करते।
(१४) भय :-अर्थात् डर। भय सात प्रकार के हैं-(१) इहलोकभय-मनुष्य का भय (२) परलोकभय-तिर्यञ्च तथा देव आदि का भय (३) आदानभय-धनादि सम्बन्धी भय (४) अकस्मात् भय (५) आजीविका का भय (६) मृत्यु का भय (७) पूजा-श्लाघा का भय । अरिहन्त भगवान् अनन्त बलशाली होने से इन सातों अयों से प्रतीत हैं। वे किसी भी प्रकार भय से भीत नहीं होते।
(१५) हिंसा: - षट्काय के जीवों में से किसी का घात करना हिंसा है। अरिहन्त महादयालु होते हैं। वे त्रस और स्थावर सभी जीवों की हिंसा से सर्वथा निवृत्त होते हैं। साथ ही 'मा हन' अर्थात् किसी भी जीव को मत मारो, इस प्रकार का उपदेश देकर दूसरों से भी हिंसा का त्याग करवाते हैं। 'सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पाक्यणं भगवया सुकहियं' अर्थात् समस्त जगत् . के जीवों की रक्षा रूप दया के लिए ही भगवान् ने उपदेश दिया है। ऐसा श्रीप्रश्नव्याकरणसूत्र में उल्लेख है। अरिहन्त हिंसा के कृत्य को अच्छा नहीं जानते।
__ (१६) प्रेम :-अरिहन्त में तन, स्वजन तथा धन आदि सम्बन्धी स्नेह नहीं होता। वे वन्दक और निन्दक में समभाव रखते हैं। इसलिए अपनी पूजा करने वाले पर तुष्ट होकर उसका कार्य सिद्ध नहीं करते और निन्दा करने वाले पर रुष्ट होकर उसे दुःख नहीं देते।
(१७) क्रीड़ा:-मोहनीय कर्म से रहित होने के कारण अरिहन्त सब प्रकार की क्रीड़ाओं से भी रहित होते हैं। गाना, बजाना, रास खेलना,