________________
ॐ अरिहन्त ॐ
[१७
अरिहन्त भगवान १८ दोष रहित होते हैं
अरिहन्त भगवान् वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं। पहले कहा जा चुका है कि चार घातिया कर्मों का नाश होने पर अर्हन्त-अवस्था प्रकट होती है । जो महान् पुरुष चार घातिया कर्मों से रहित हो चुके हैं, उनकी आत्मा में किसी भी प्रकार का विकार या दोष नहीं रह सकता। घातिया कम ही सब प्रकार के दोषों को उत्पन्न करते हैं। मोहनीय आदि वातिया कर्मों का नाश हो जाने पर आत्मा विभाव-परिणति का त्याग करके स्वभाव-परिणति में आ जाता है। ऐसी अवस्था में आत्मा निर्दोष, निरंजन, निष्कलंक और निर्विकार होता है । अतः अरिन्हत भगवान् में दोष का लेश भी नहीं रहता। वे समस्त दोषों से अतीत होते हैं। किन्तु यहाँ जिन अठारह दोषों का अभाव बतलाया जा रहा है, वे उपलक्षण मात्र हैं। इन दोषों का अभाव प्रकट करने से समस्त दोषों का अभाव समझ लेना चाहिए। जिस आत्मा में नीचे लिखे अठारह दोष न होगे, उसमें अन्य दोष भी नहीं रह सकते ।
(१) मिथ्यात्व:-जो वस्तु जैसी है उस पर वैसी ही श्रद्धा न रख कर, विपरीत श्रद्धा करना मिथ्यात्व दोष कहलाता है। अरिहन्त भगवान् अनन्त क्षायिक सम्यक्त्व की परिपूर्णता को प्राप्त कर चुकते हैं, इसलिए मिथ्यात्व दोष से रहित होते हैं ।
(२) अज्ञान:-ज्ञान न होना अथवा विपरीत ज्ञान होना अज्ञान कहलाता है। ज्ञान न होने का कारण ज्ञानावरणीय कर्म है और विपरीत ज्ञान होने का कारण मोहनीय कर्म है । अरिहन्त भगवान् इन कर्मों से रहित होते हैं। वे केवलज्ञानी होने से समस्त लोकालोक एवं चर-अचर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं।
(३) मद :-अपने गुणों का गर्व होना मद' कहलाता है। मद वहीं होता है जहाँ अपूर्णता हो । अरिहन्त सब गुणों से सम्पन्न होने के