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अरिहन्त ॐ
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[२०] भगवान् की वाणी दूध और मिश्री से भी अधिक मधुर होती है, इस कारण श्रोता धर्मोपदेश छोड़ कर जाना नहीं चाहते ।
[२१] किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाले मर्मवेधी वचन नहीं बोलते ।
[२२] किसी की योग्यता से अधिक गुण-वर्णन करके खुशामद नहीं करते किन्तु वास्तविक योग्यता के अनुसार गुणों का कथन करते हैं।
[२३] भगवान ऐसा सार्थक धर्मोपदेश करते हैं, जिससे उपकार हो और आत्मार्थ की सिद्धि हो।
[२४] अर्थ को छिन्न-भिन्न करके तुच्छ नहीं बनाते । [२५] व्याकरण+ के नियमानुसार शुद्ध शब्दों का प्रयोग करते हैं।
[२६] अधिक जोर से भी नहीं, अधिक धीरे भी नहीं और शीघ्रतापूर्वक भी नहीं, किन्तु मध्यम रीति से वचन बोलते हैं ।
[२७] प्रभु की वाणी सुन कर श्रोता ऐसे प्रभावित होते हैं और बोल उठते हैं कि-अहा ! धन्य है प्रभु की उपदेश देने की शक्ति ! धन्य है प्रभु की भाषणशैली!
[२८] भगवान् हर्षयुक्त और प्रभावपूर्ण शैली से उपदेश करते हैं, जिससे सुनने वालों के सामने हूबहू चित्र उपस्थित हो जाता है और श्रोता एक अनूठे रस में निमग्न हो जाते हैं।
[२६] भगवान् धर्म-कथा करते-करते बीच में विश्राम नहीं लेते, बिना विलम्ब किये धाराप्रवाह भाषण करते हैं।
[३०] सुनने वाला अपने मन में जो प्रश्न सोच कर आता है, उसका विना पूछे ही समाधान हो जाता है।
[३१] भगवान् परस्पर सापेक्ष वचन ही कहते हैं और जो कहते हैं वह श्रोताओं के दिल में जम जाता है ।
+ इस कथन से व्याकरण-ज्ञान की कितनी आवश्यकता है, यह समझा जा सकता है। अशुद्ध वाणी द्वारा किया हुआ हितकारी कथन भी श्रोता के हृदय पर पर्याप्त प्रभाव नहीं डाल सकता। अतएव वक्ताओं को व्याकरण पढ़कर भाषा की शुद्धता का खयाल अवश्य रखना चाहिए।