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जैनसाहित्य और इतिहास
शिवकोटि अपने इतने बड़े ग्रन्थमें अपने इतने बड़े उपकारी गुरु समन्तभद्रका उल्लेख न करें । कमसे कम उनका नामस्मरण तो अवश्य करते । परन्तु वे अपने गुरुओंके नाम जुदा ही बतलाते हैं ।
हरिषेणकृत कथाकोश उपलब्ध कथाकोशों में सबसे पुराना श० सं० ८५३ ( वि० सं० ९८८ ) का बना हुआ है । इस ग्रन्थमें जब कि प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशकी अन्य प्रायः सभी कथायें दी हुई हैं, तब उक्त शिवकोटि और समन्तभद्रवाली कथा नहीं है, इससे मालूम होता है कि समन्तभद्र के शिष्यत्वकी उक्त कल्पना उसके बाद की है ।
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शिवकोटिका सबसे पुराना उल्लेख आदिपुराण में मिलता है । जिनसेनस्वामीको शायद इस बात का पता था कि वे किसके शिष्य हैं । यदि वे उन्हें समन्तभद्रका शिष्य समझते होते तो समन्तभद्र के बाद ही उनकी स्तुति करते । सो न करके उन्होंने बीच में श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्दकी प्रशस्ति लिखकर फिर शिवकोटिका स्मरण किया है ।
कवि हस्तिमल्ल ( वि० की चौदहवीं शताब्दि ) ने 'विक्रान्तकौरव ' में समन्तभद्रके शिवकोटि और शिवायन दो शिष्य बतलाये हैं और उन्हीं के अन्वयमें वीरसेन जिनसेनको बतलाया है, परन्तु इस बातका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि समन्तभद्रकी शिष्यपरम्परामें वीरसेन जिनसेन हुए हैं । शिवकोटि तो खैर ठीक परन्तु ये 'शिवायन' और कौन हैं ? कहीं 'सिवज्जेण' (शिवार्येण) पद ही तो किसी गलतफहमीसे शिवायन नहीं बन गया है ? अन्यत्र कहीं भी शिवायनका कोई उल्लेख अब तक नहीं मिला ।
इस तरह शिवकोटि समन्तभद्रके शिष्य नहीं माने जा सकते ।
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आराधना
अन्य दो रचनायें' के अतिरिक्त शिवकोटि आचार्यकी दो रचनायें और बतलाई जाती हैं, जिनमें से एक ' रत्नमाला ' है ।
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१ पं० परमानन्द शास्त्रीने अपने एक लेख ( अनेकान्त वर्ष २, किरण ६ ) में बतलाया है कि शिवार्यने गाथा २०७९ - ८३ में स्वामी समन्तभद्रकी तरह गुणव्रतों में भोगोपभोग परिमाणको न गिनकर देशावकााशिकको ग्रहण किया है और शिक्षाव्रतोंमें देशावकाशिकको न लेकर भोगोपभोगपरिमाणका विधान किया है। यदि वे समन्तभद्रके शिष्य होते तो इस विषयमें उनका अनुसरण अवश्य करते ।
२ माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाके २१ वें ग्रन्थ ' सिद्धान्तसारादिसंग्रह ' में प्रकाशित ।