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आराधना और उसकी टीकायें
किन्नर-रवि-शशि-किंपुरुषोंके द्वारा पूज्य और तीन भुवनके इन्द्र भगवान् महावीर मुझे बोधि दें । क्षम ( क्षमा ), दम ( इंद्रियदमन ) और नियमोंके धारक, कर्मरहित, सुखदुःखविप्रयुक्त और ज्ञानके द्वारा सल्लेखनाको उद्योतित करनेवाले जिनवरों ( तीर्थंकरों) को नमस्कार हो ।
इससे मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ताका पूरा नाम शिवार्य था। अपने तीनों गुरुओंके नामके साथ उन्होंने 'आर्य' विशेषण दिया है । इससे जान पड़ता है कि उनके साथ जो 'आर्य' शब्द है, वह भी विशेषण ही है और इसलिए उनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त, शिवकोटि या ऐसा ही कुछ होगा, जो संक्षेपमें 'शिव' कहा जा सकता है।
आदि पुराणके कर्ता भगवजिनसेनने अपने ग्रन्थके प्रारंभमें उनका शिवकोटि मुनीश्वर कहकर उल्लेख किया है
शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाऽऽराध्य चतुष्टयं ।
मोक्षमार्ग स पायान्नः शिवकोटिमुनीश्वरः ॥ ४९॥ अर्थात् वे शिवकोटि मुनीश्वर हमारी रक्षा करें, जिनकी वाणीद्वारा (निर्मित) चतुष्टयरूप ( दर्शन-ज्ञान-चरित्र-तपरूप ) मोक्षमार्गका आराधन करके यह जगत् शीतीभूत या शान्त हो रहा है । __ अवश्य ही इस श्लोकमें 'आराधना का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, परन्तु जिस ढंगसे यह कहा गया है उससे ऐसा मालूम होता है कि जिनसेनस्वामीका आशय शायद इसी 'आराधना' ग्रन्थसे है, क्यों कि इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूप चार प्रकारकी आराधनाओंका ही विस्तृत व्याख्यान है और इसमें भी सन्देह नहीं है कि वह संसारको शीतीभूत करनेवाला है। इससे संभव है कि उनका पूरा नाम 'आर्य शिवकोटि' हो ।
समन्तभद्रका शिष्यत्व-श्री प्रभाचन्द्रके आराधना कथाकोश ( गद्य) में और देवचन्द्रके ' राजावलि कथे' ( कनड़ी) में शिवकोटिको स्वामी समन्त भद्रका शिष्य बललाया है। इनके अनुसार वे काशी या कांचीके शैव राजा थे और उनके शिवलिंग फोड़कर उसमेंसे चन्द्रप्रभकी प्रतिमा प्रकट करनेके चमत्कारको देखकर वे जैन हो गये थे। परन्तु इन कथाओंपर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता। इतिहासदृष्टि से ये लिखी भी नहीं गई हैं । जैनधर्मका प्रभाव प्रकट करना ही इनका उद्देश्य जान पड़ता है । यह कदापि संभव नहीं कि