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जैनसाहित्य और इतिहास
उसके साथ 'भगवती' पद लगाया है, 'आराधना भगवती कथिता स्वशक्त्या।' यह प्रयोग भी मूलकी २१६४ नम्बरकी गाथाके समान है ।
विषय-यह प्रधानतः मुनि-धर्मका ग्रन्थ है । मुनि-धर्मकी अन्तिम सफलता शान्तिपूर्वक समाधिमरण है और इस समाधिमरणका-पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण आदिका-इसमें विशद और विस्तृत विवेचन है ।
मूल कर्ताका परिचय ग्रन्थकर्त्ताने ग्रन्थान्तमें अपना परिचय इस प्रकार दिया है
अजजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तगणि-अजमित्तणंदीणं । अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च ॥ २१६१ ॥ पुवायरियणिवद्धा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराहणा सिवजेण पाणिदलभोइणा रइदा ॥ ६२॥ छदुमत्थदाइ एत्थ दु जं वद्धं होज पवयणविरुद्धं । सोधंतु सुगीदत्था पवयणवच्छल्लदाए दु ॥ ६३ ।। आराहणा भगवदी एवं भत्तीए वण्णिदा संती । संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ ।। ६४ ॥ असुर-सुर-मणुअ-किण्णर-रवि-ससि-किंपुरिस-महियवरचरणो। दिसउ मम बोहिलाहं जिणवरवीरो तिहुवणिंदो ॥ ६५ ॥ खम-दम-णियम-धराणं धुदरयसुहदुक्खविप्पजुत्ताणं । णाणुजोदियसल्लेहणम्मि सुणमो जिनवराणं ।। ६६ ॥ अर्थात्--आर्य जिननंदि गणि, आर्य सर्वगुप्त गणि और आर्य मित्रनन्दिके चरणोंके निकट मूल सूत्रों और उनके अर्थ या अभिप्रायको अच्छी तरह समझ करके, पूर्वाचार्योद्वारा निबद्ध की हुई रचनाके आधारसे पाणितलभोजी ( करतलपर लेकर भोजन करनेवाले ) शिवार्यने यह 'आराधना' अपनी शक्तिके अनुसार रची है । अपनी छद्मस्थता या ज्ञानकी अपूर्णताके कारण इसमें जो कुछ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, उसे सुगीतार्थ अर्थात् पदार्थको भले प्रकार समझनेवाले प्रवचनवात्सल्य-भावसे शुद्ध कर लें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन की हुई भगवती आराधना संघको और शिवार्यको ( मुझे ) उत्तम समाधि दे । असुर-सुर-मनुष्य१ पं० आशाधरजीने अपनी टीकामें 'पुब्वायरियकयाणि य ' पाठ माना है ।