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तुम से न हो सके उतना दूसरों से उनका भला कराने का यत्न करो। इतना भी न हो सके तो अपने मन में उनके लिए सहानुभति रक्खो । तन मन धन यदि दीन दुखियों की रेवा में लग जाए तो इससे अधिक और अच्छा इनका उपयोग क्या होगा?"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १७७) (१३) "यदि कभी किसी धर्मात्मा से कोई ऐमा निन्दाजनक अपराध हो जाये तो अन्य धर्मात्मा का यह कर्तव्य है कि उस धर्मात्मा का अपयश होने से बचावे जिससे कि धर्म का अपवाद न होने पाए। क्योंकि धर्मात्मा की निन्दा होने से धर्म की निन्दा अवश्य होती है। इससे समाज को भी बहुत धक्का पहुंचता है । जिस तरह अपनी समाज का कोई मनुष्य अच्छा यशस्वी कार्य करे तो सर्वत्र उस समाज का नाम उज्ज्वल होता है और उस समाज का मस्तक ऊंचा होता है। किन्तु यदि कोई मनुष्य निन्दनीय कार्य कर बैठे तो उस समाज का भी अपयश फैल जाता है, उस मनुष्य के कुकृत्य के कारण उस समाज को भी नीचा देखना पड़ता है।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १८५) (१४) "इस युग में हम सबका कर्तव्य है कि प्रथम ही अपने पद अनुसार जैनधर्म का निर्दोष आचरण करके अपना ऐसा उच्चकोटि का जीवन बनाएं जिसे देखकर दूसरे व्यक्तियों के हृदय में जैनधर्म का गौरव स्वयं अंकित हो सके। इसके लिए हमारा नैतिक शुद्ध लेन-देन, रहन-सहन होना चाहिए। लोककल्याण की भावना, अहिंसा, दया का क्रियात्मक रूप हमारे कार्यों में झलकना चाहिए। हमारी कोई भी प्रवृत्ति लोकहित के विरुद्ध न हो और देशहित विरोधी कार्य हमारे द्वारा न हो, हमारे वचन विश्वस्त, हितकर, सत्य. सारभूत होने चाहिएँ।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १९७) (१५) 'धर्मात्मा (श्रावक) अपनी विश्वसनीयता बनाने के लिए व्यापार में न असत्य बोलता है न किसी को धोखा देता है, कभी चुंगीकर की चोरी नहीं करता, न आयकर, बिक्रीकर से बचने या कमी के अभिप्राय से दुकान का हिसाब, बही खाते ग़लत बनाता है। सही जमा खर्च किया करता है।-----ऐसा व्यापारी धीरे-धीरे व्यापार में अग्रणी हो जाता है और उसे अचिन्त्य लाभ होता है।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग पृष्ठ २०७) (१६) "अनेक स्त्रियां अनेक पुत्र-पुत्रियों क रहते गरीबी की दशा में विधवा हो जाती हैं, अनेक गरीब लड़के-लड़कियां मातापिता के मरने से अनाथ हो जाते हैं, अनेक व्यक्ति किसी रोग या दुर्घटना के कारण निकम्मे बन कर परमुखापेक्षी बन जाते हैं। अनेक स्त्रियों को उनके पति कुरूपता या बांझ होने के कारण निराश्रित छोड़ देते हैं, बहुत-से बच्चों को सौतेली मां घर में नहीं रहने देती। इस तरह आजकल संसार में अनेक तरह के कष्ट स्त्री-पुरुषों पर आ रहे हैं । आये हुए दुःखों से छुटकारा पाने के लिए बहुत-से अपना धर्मकर्म छोड़कर ईसाई आदि बन जाते हैं । बहुत-सी स्त्रियां दुराचारिणी, वेश्या आदि बन जाती हैं, बहुत-से आत्महत्या कर लेते हैं, बहुतों को भीख मांगनी पड़ती है। इस दशा में समाज-हितैषी पुरुषों का काम है कि ऐसे दीन-दुःखी, अनाथ, विधवा, अपंग स्त्री-पुरुषों, बालबच्चों की सेवा करने के लिए, उनको पैरों पर खड़ा करने के लिए समुचित सफल स्थायी प्रबन्ध करे । औषधालय, अनाथालय, विधवाश्रम आदि की स्थापना करें और ऐसी संस्थाओं को ऐसे अच्छे ढंग से चलाएँ कि उनके चलाने के लिए द्रव्य मांगने की आवश्यकता न पड़े, उस संस्था के आदर्श कार्य से आकर्षित होकर जनता उस संस्था को स्वयं सहायता प्रदान करे।"
(उपदेश सार संग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ३८८) (१७) "श्रावकों को ऐसे सेवामण्डल बनाने चाहिएँ जिनके द्वारा असहाय, निराश्रित, दुःखी, पीड़ित स्त्री-पुरुषों को तन, मन, धन से सहायता पहुंचती रहे । जो व्यक्ति निर्धन होते हुए भी समाज में सम्मान से रहते हों, जो प्रगट में किसी की सहायता लेना अपने सम्मान के विरुद्ध समझते हों ऐसे स्त्री-पुरुषों को गुज रूप से सहायता करनी चाहिए।"
(उपदेश सार सग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ३८८) (१८) "श्रावकों को अपने गुणों से आत्मा को प्रभावशाली बनाना चाहिए। तपस्या तथा सच्चरित्र के आचरण से आत्मा में भाव प्रकट होता है। अत: जैनधर्म की प्रभावना के लिए सबसे प्रथम तो अपने आत्मा में जैनधर्म को उतार कर अपने आपको प्रभावशाली बनाना चाहिए। इसके बाद अपना ज्ञान गुण विकसित करना चाहिए। जैन सिद्धान्त तथा अन्य सिद्धान्तों का और न्यायशास्त्र का परिज्ञान प्राप्त करना चाहिए।--इस प्रकार अपने ज्ञान के प्रभाव से उपदेश देकर, शास्त्रार्थ करके तथा ग्रन्थ रचना द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करें।"
(उपदेश सार संग्रह, दूसरा भाग, पृष्ठ ४१३) (१९) "श्रावकों को लोकोपकारक कार्य करके जैनधर्म का प्रभाव साधारण जनता में फैलाना चाहिए जिस तरह कि जयपुर के निर्दोष दीवान अमरचन्द्र जी ने प्रजा की रक्षा के लिए अंग्रेज अफसर को मार डालने का अपराध अपने ऊपर लेकर सैकड़ों मनुष्यों को जीवन रक्षा की थी। इसी तरह दान, महान् उत्सव करके, दर्शनीय भव्य मन्दिर बनाकर जैनधर्म की प्रभावना संसार में कालजयी व्यक्तित्व
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