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(६) "अपने नगर में आनेवाले साधर्मी दरिद्र बन्धु के परिवार के रहने के लिए मकान की व्यवस्था और व्यापार के लिए आवश्यक धनराशि का प्रबन्ध भी श्रावक समाज को कर देना चाहिए। इस प्रकार के वात्सल्य भाव से पुण्यबन्ध होता है, समाज की उन्नति होती है और धर्म की परम्परा बनी रहती है ।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ ११४) (७) "भगवान् महावीर ने अपने भक्तों को चार संघों में संगठित रहने की विधि का निर्देश किया। मुनि, आयिका, श्रावक, श्राविका के उचित आचार का उपदेश भगवान् महावीर ने अच्छे विस्तार से दिया। उस चतुर्विध संघ की संगठित प्रणाली भगवान् महावीर के पीछे भी चलती रही जिससे जैनधर्म की परम्परा अनेक विध्न बाधाओं के आते रहने पर भी बनी रही । आज उस चतुर्विध संघ का संगठन शिथिल दिख रहा है। इसी से जैन समाज में निर्बलता प्रवेश करती जा रही है । अत: जैनधर्म को प्रभावशाली बनाने के लिए हमें चारों संघों का मजबूत संगठन बनाना चाहिए । 'संघे शक्तिः कलीयुगे' अर्थात् इस कलियुग में संगठन द्वारा शक्ति पैदा की जा सकती है। इस कारण वीर शासन को व्यापक बनाने के लिए हमारा कर्तव्य अपने सामाजिक संगठन को बहुत दृढ़ बनाना है ।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १२५)) (८) "जिस समाज में मनुष्य रहता है उस समाज की उन्नति तथा बढ़वारी पर ही मनुष्य की उन्नति तथा बढ़वारी अवलम्बित है। अत: समाज सेवा के लिए जितना द्रव्य दे सकें उतना अवश्य देना चाहिए । अपने भाई बहिनों के संकट दूर करना, समाज के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था, साधर्मी के व्यापार आजीविका आदि में सहयोग करने आदि सामाजिक कार्यों में अपनी शक्ति अनुसार द्रव्य ब्यय करना चाहिए।"
(उपदेश सार सग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १४६) (९) "जिस देश में हम रहते हैं उस देश की उन्नति के लिए यथासम्भव धन प्रदान करना चाहिए। इसके सिवाय लोक कल्याण के कार्यों का भी ध्यान रखना आवश्यक है । तदनुसार दीन दुःखी अनाथ अपाहिज, अन्धे, असहाय मनुष्यों के दुःख दूर करने में जितनी सहायता दी जा सकती हो देनी चाहिए । भूखे व्यक्ति को भोजन कराना, नंगे को वस्त्र देना, रोगी को औषधि देना, औषधालय खोलना, प्यासे को स्वच्छ शीतल जल पिलाना चाहिए। इसके सिवाय पशु पक्षियों की रक्षा के लिए, उनके भोजन के लिए, उनकी चिकित्सा के लिए जितना बन सके अवश्य खर्च करना चाहिए। सारांश यह है कि परिश्रम से न्यायपूर्वक संचित किए हुए धन को धर्मार्थ तथा परोपकार के लिए यथायोग्य व्यय करना चाहिए।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १४६) (१०) "श्रावकों को अपनी शक्ति अनुसार धर्म का स्वयं आचरण करना धर्म की मुख्य सेवा है क्योंकि स्वयं आचरण किए बिना धर्म का प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर नहीं डाला जा सकता। अतः स्वयं धर्माचरण करके ऐसे शुभ कार्य करने चाहिए जिससे तुमको देखकर दसरे व्यक्ति भी जैनधर्म की ओर स्वयं आकर्षित हों, जैनधर्म की प्रशंसा करें। इसके सिवाय जैनधर्म के सत्य सिद्धान्त सरल भाषा में प्रकाशित करके जनता में उन्हें वितरण करें। जैन साहित्य जैनेतर विद्वानों को भेंट करें। जैनेतर भद्र पुरुषों के साथ सम्पर्क जोड़कर, उनके साथ प्रेम स्थापित करके उनको मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थों का स्वाध्याय कराएँ । जैन धर्म का आचरण करने की प्रेरणा करते है। नेतर सभाओं में जैनधर्म के महत्त्व को प्रकट करने वाले भाषण दें। जो अपने जैन बन्धु धर्म से विचलित या शिथिल हो रहे हों उनको समझा-बुझा कर धर्म में दृढ़ करें।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १७६) (११) "अपने समाज की निष्काम सेवा करना भी मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है। व्यक्ति की उन्नति तभी होती है जबकि समाज की उन्नति होती है। यदि अपने समाज में अविद्या, दुराचार, ईर्ष्या, द्वेष फैला हुआ होगा, दरिद्रता फैली हुई होगो तो उसका प्रभाव इस समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर थोड़ा बहुत अवश्य पडेगा । ---------मनुष्य को अपना स्वार्थ गौण करके समाज के हित को प्रधानता देनी चाहिए। इसके लिए समाज में शिक्षा का प्रचार करना चाहिए, समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर करना चाहिए। अपने समाज के अनाथ बच्चों, महिलाओं के शिक्षण, आजीविका आदि का प्रबन्ध कर देना चाहिए जिससे अपने समाज में कोई दुःखी न रहे । समाज में ऐसे नियमों का प्रचार करना चाहिए जिनके द्वारा निर्धन व्यक्ति भी अपने पुत्र-पुत्रियों के विवाह सम्बन्ध आदि सामाजिक कार्य सरलता से कर सकें। सारांश यह है कि समाज को हम अपना बड़ा परिवार समझ कर उसके प्रत्येक बच्चे को अपना बच्चा, उसकी प्रत्येक स्त्री को अपनी बहन, पुत्री और प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई समझें।"
(उपदेश सार संग्रह, प्रथम भाग, पृष्ठ १७६-१७७) (१२) "दुःखी स्त्री पुरुषों के साथ मीठे नम्र शब्दों में बातचीत करो, यदि वे भूखे हों तो उनको रोटी खिलाओ, प्यासे हों तो पानी पिलाओ, नंगे हों तो उनको वस्त्र दो, यदि रोगी हों तो उनको औषधि दो । स्वयं जितना कर सकते हो उतना स्वयं करो, जितना
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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