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* कर्मपर्यायप्रदर्शनम् *
न चाऽपूर्वजनकतया तस्य फलहेतुत्वं, तद्धि अपूर्वं विघ्नमविनाश्य फलं जनयेद्विनाश्य वा? नाद्यः सति प्रतिबन्धके हेतुसहस्रादपि शिष्टाचारपरिपालनं न सुखरूपं न वा दुःखाभावरूपम्, अतो न स्वतः प्रयोजनमित्याशयः । नापि तत्परतः प्रयोजनम् यतः परतः प्रयोजनं नाम अन्यकामनाधीनकामनाविषयत्वम् । तथा च प्रकृते निर्विघ्नग्रन्थपरिसमाप्तिकामनाधीनकामनाविषयत्वरूपं तत्प्राप्तम्। तच्च न युक्तं ग्रन्थसमाप्तेः कालान्तरभावित्वात्। मङ्गलप्रवृत्तिरूपशिष्टाचारपरिपालनस्य ग्रन्थसमाप्तिपर्यन्तमसत्त्वात् कथं सा तत्प्रयोज्या? न हि मृता दग्धा च भार्या पुनः प्रसवायोद्भवति । न चापूर्वेति। नमस्कारादिरूपमङ्गले प्रवृत्तिरूपस्य शिष्टाचारपरिपालनस्याऽपूर्वजननद्वारा ग्रन्थपरिसमाप्तिरूपफलहेतुत्वमिति तत्परतः प्रयोजनमिति शङ्काकर्तुराशयः।
प्रकृतेऽपूर्वं च न प्रकरणप्रतिपाद्यस्य मानान्तराविषयरूपम् न वा पूर्वं न दृष्टमित्यादिरूपं ग्राह्यम्, अनधिकारात् किन्तु कालान्तरभाविफलानुकूलविहितनिषिद्धक्रियाजन्यभावव्यापाररूपं अदृष्टसिद्धिवादे प्रकृतप्रकरणकृतोक्तं ग्राह्यम् । तच्च वैशेषिकादिभिः अदृष्टपदेन, स्याद्वादिभिरस्माभिः कर्मशब्देन, सौगतैः संस्काराभिधानेन, वेदवादिभिः पुण्याद्याख्यया, गणकैः शुभादिपर्यायेण, सांख्यैः धर्मादिनाम्ना, शैवैः पाशाख्यानेन, लोकैः दैवविध्यादिध्वनिना, कैश्चित् अतिशयवचनेन, अन्यैः शक्तिव्यपदेशेन, परैः बीजापदेशेन, अपरैः कलेशसंज्ञया, इतरैः मायासङकेतेन, ऋजुभिः अविद्याप्रातिपदिकेन प्रतिपाद्यते। तदुक्तं शास्त्रवार्तासमुच्चये - अदृष्टं कर्म संस्कारः पुण्यापुण्ये शुभाशुभे । धर्माधर्मों तथा पाशः पर्यायास्तस्य कीर्तिताः।। (शा. स. श्लो. १०७) अपूर्वकल्पना चावश्यक्येव, व्यवहितकालभावित्वात्कार्यस्य तदुक्तमुदयनेनापि न्यायकुसुमाञ्जलौ 'चिरध्वस्तं फलायालं न कर्माऽतिशयं विना' ।। (न्या. कु. १/ ९) इति।
यत्तु अधुनातनेन बदरीनाथशुक्लेन क्रतौ सुप्ते जाग्रत्त्वमसि फलयोगे क्रतुमताम् क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते । अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदानप्रतिभुवम् श्रुतौ श्रद्धां बद्ध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। (शि. स्तो.) इति पुष्पदन्तकृतं शिवमहिम्नः स्तोत्रं विवृण्वता - 'यागेन ईश्वर आराधितः = प्रीतो भवति । यागेन 'याजको यागफलं प्राप्नोतु' इत्याकारिका ईश्वरेच्छा यागफलदायिनी यागफलनाश्या उत्पाद्यते यद्वा नित्येश्वरेच्छायां गुणाऽसमवेतसंख्येव की कामना के अधीन है, क्योंकि सुख की प्राप्ति की कामना से धनप्राप्ति की कामना होती है। जब आदमी को कोई लुटेरा धन के लिए खून की धमकी देता है तब वह आदमी तुरंत ही लुटेरो को धन दे देता है क्योंकि उस वक्त आदमी को धन में सुखसाधनता का बोध न होने से सुखकामना के अधीन धनकामना नष्ट होती है। लेकिन सुख की कामना अन्य किसी कामना के अधीन नहीं है, क्योंकि सुख स्वतः काम्य है। तथा गर्मी के दिनों में प्यास बुझाने के लिए आदमी पानी को पीता है। जलपान की यह इच्छा प्यास को, जो कि दुःखरूप से आदमी को प्रतीत होती है, दूर करने की इच्छा के अधीन है। लेकिन प्यास की निवृत्ति की-दुःखनिवृत्ति की इच्छा अन्य किसी इच्छा के अधीन नहीं है, क्योंकि दुःखनिवृत्ति स्वतः काम्य है। उपर्युक्त दो उदाहरण से सिद्ध होता है कि सुख या दुःखाभाव स्वतः प्रयोजन है। इन दोनों से अतिरिक्त कोई भी पदार्थ स्वतः प्रयोजन नहीं होता है। प्रस्तुत में शिष्टाचारपरिपालन न सुखरूप है, न दुःखाभावरूप है। अतएव वह स्वतः प्रयोजन नहीं है।
शंका :- न चापूर्व इत्यादि। अरण्यरुदन की तरह आपका यह वक्तव्य निरर्थक है। शिष्टाचार को स्वतः प्रयोजन तो हम भी मानते नहीं हैं। अतः आपने खोदा पहाड और निकली चुहिया! हम शिष्टाचारपरिपालन को परतः प्रयोजन मानते हैं। यद्यपि शिष्टाचार का परिपालन स्वतः काम्य न होने से ग्रन्थसमाप्तिरूप इष्ट की सिद्धि के लिए ही वह उपादेय है, लेकिन उसकी यह उपादेयता भी उसे समाप्ति का साक्षात् कारण मान कर नहीं उपपन्न की जा सकती, क्योंकि समाप्ति होने से चिर पूर्वकाल ही नष्ट हो जाने से वह समाप्ति का साक्षात् कारण नहीं हो सकता। अतः उसे हम अपूर्व द्वारा ही समाप्ति का कारण मानते हैं। इस अपूर्व को ही नैयायिक लोग अदृष्ट कहते हैं, बौद्ध संस्कार कहते हैं, स्याद्वादी कर्म कहते हैं, सामान्य लोग भाग्य, दैव आदि शब्द से व्यवहार करते हैं। यह अपूर्व शास्त्रसमाप्तिरूप फलपर्यन्त विद्यमान रहता है। ग्रंथकार को ग्रंथसमाप्तिरूप फल इष्ट है, साध्य है।