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* त्रिराशिमतविचारः *
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आत्मोपन्यासश्चायं यत्राऽनुपन्यसनीय आत्मैवोपन्यस्यते । तत्र च लोके तटाकभेदे पिङ्गलस्थपतिरुदाहरणम् । अन्यत्राऽपि समुचितैव । तदुक्तं प्रकृतप्रकरणकारेणैव तत्त्वार्थवृत्तौ - "स्वरूपतोऽशुद्धत्वेऽपि फलतः शुद्धत्वं सर्वेषां नयवादानां स्याद्वादव्युत्पादकतयेत्यर्वाग्दशायां सर्वथा तदाश्रयणं न्याय्यमिति परमार्थः । " ( तत्त्वा. १/३५ य. वृ.)
विरुद्धभाषणादेवेति। स्वसिद्धांतपरित्यागपूर्वं विरुद्ध सिद्धान्ताश्रयेण विरुद्धभाषणाद् दुष्टत्वम् । अत एव अगस्त्य - सिंहसूरिणा चूर्णो- "जदि परवाती, एवं भणेज्जा दो रासी जीवा अजीवा तत्थ भणितव्वं न याणसि, तिण्णी रासी । ततियं ठावेत्ता जिते भण्णति बुद्धि तव परिभूता, दो चेव रासी" (द.वै. चू.पृ. २६) इत्युक्तम्।
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वस्तुतस्तु स्याद्वादमाश्रित्य नयमतभेदेन त्रैराशिकमतस्थापनस्य न दुष्टत्वम् । तदुक्त मुत्तराध्ययनबृहद्वृत्तौ श्री शान्ति सूरिणा "समभिरूढो हि जीवदेशं नोजीवमिच्छन्नपि न राशिभेदमिच्छति । सर्वनयानामपि चैकमत्यमत्रार्थे, सर्वनयमतत्वे च जिनमतस्य किमेकतरमतेन ? इच्छतु वा समभिरुढो देशं नोजीवं एकनयिकं तु तन्मिथ्यात्वं, सम्यक्त्वं तु सर्वनयमतानुराधेनेति ।" (उत्तरा . अ. ३. बृ.वृ.) इदमेवाभिप्रेत्य स्याद्वादकल्पलतायां " एकान्तमाश्रयत एव त्रैराशिकस्य नयान्तरेण निरासात्, सैद्धान्तिकैस्तु नयमतभेदेन तथाभ्युपगमात्" (स्या. क. स्त. ७. श्लो. ३० वृत्ति) इत्यादिकं विस्तरकेण व्यवस्थापितमिति दिक् ।
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द्रव्यानुयोगाधिकृतप्रतिलोमतद्दोषे श्रीहरिभद्रसूरिभिः निर्युक्त्यनुसारेण पूव बौद्धधर्मानुयायिनो विज्ञाननिमित्तप्रव्रजितस्य पश्चात् परावृत्तभावस्य सञ्जातमहावादिनो गोपेन्द्रवाचकस्याऽपि निदर्शनं प्रदर्शितम् ।
तद्दोषतृतीयभेदमावेदयति- आत्मोपन्यास इति । यत्र = वक्तव्ये, अनुपन्यसनीयः = उपन्यासानर्हः, आत्मा = स्वदेहः स्वो वा एव उपन्यस्यते इति । इदं लौकिकलोकोत्तरचरणकरणानुयोगोदाहरणापेक्षया ज्ञातव्यम् । द्रव्यानुयोगाधिकारापेक्षया तु येनोदाहरणेन परमतदूषणायोपात्तेनाऽऽत्ममतमेव स्वात्मा वा दुष्टतयोपनीयत इत्यर्थः कार्यः । पिङ्गलस्थपतिरिति । तटाकभेदे 'कथमिदं तटाकमभेदं भविष्यती 'ति राज्ञा पृष्टः पिङ्गलाभिधानः स्थपतिरवोचत् - भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते सतीति । अमात्येन तु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात इति तेनात्मैव दोषे नियुक्तः * द्रव्यानुयोग प्रतिलोम तद्दोष उपमान में दोषप्रदर्शन*
समाधान :- अत्र चाद्ये. इति। आपकी यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि प्रथम उदाहरण में साध्यार्थ की असिद्धि दोष है। आशय यह है कि द्रव्यार्थिक नय की युक्ति से प्रतिकूल युक्ति का पर्यायार्थिक नय के द्वारा उपन्यास कर के द्रव्यार्थिक नय को अप्रमाण किया नहीं जा सकता है और वैसे ही पर्यायार्थिक नय की युक्ति से विपरीत युक्ति दे कर द्रव्यार्थिक नय द्वारा पर्यायार्थिक नय को भी अप्रमाण नहीं किया जा सकता है, क्योंकि सब नय अपने अपने विषय में सत्य = प्रमाण होते हैं। अतः पर्यायार्थिक नय के द्वारा द्रव्यार्थिक नय में अप्रामाणिकता की स्थापना कर के अपने विषय की स्थापनारूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है तथा द्रव्यार्थिक नय के द्वारा पर्यायार्थिक नय में असत्यता की सिद्धिपूर्वक अपने विषय की स्थापनारूप साध्य की सिद्धि नहीं हो सकती है। परवादिमत निरासपूर्वक स्व मत की सिद्धि = साध्यसिद्धि न होना ही तो वाद-विवाद में दोषरूप है। अतः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय में परस्पर वाद-विवाद कराने का प्रतिपादन करना सदोष है।
द्वितीये च इति । ठीक वैसे ही द्विराशि के निरसन के लिए त्रिराशि के स्थापन का प्रतिपादन भी सदोष है, क्योंकि दो राशियों के विरुद्ध एकांततः तीन राशि का प्रतिपादन शास्त्रविरुद्ध है। इसमें अपसिद्धान्त दोष आता है। अतः द्रव्यानुयोग में अधिकृत दोनों ही प्रतिलोम उदाहरण दोषवाले = दुष्ट ही हैं यह सिद्ध होता है। इसके निरूपण के साथ-साथ तद्दोष के द्वितीय भेद प्रतिलोम का निरूपण समाप्त हुआ ।
* आत्मोपन्यास तद्दोष उदाहरण ३/३*
आत्मो. इति । अब विवरणकार तद्दोष के तृतीय भेद आत्मोपन्यास का उपन्यास करते हैं । यहाँ आत्मोपन्यास का तद्दोष उदाहरण अर्थ है । जिस स्थान में अपना उपन्यास करना न चाहिए वहाँ अपना ही उपन्यास साक्षात् या परंपरा से, जान-बूझ कर