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१८६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.१. गा. ३५
0 मांसभक्षणादेः सदोषत्वसिद्धिः ० _ 'तत्रोच्यते - इह निवृत्तेर्महाफलत्वं किं दुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेन आहोस्विददुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेन? आद्ये कथं प्रवृत्तेरदुष्टत्वम्? अन्त्ये चाऽदुष्टनिवृत्तिपरिहारात्मकप्रवृत्तेरपि महाफलत्वप्रसङ्गेन पूर्वापरविरोध इति। न मांसभक्षणेऽदोष इत्यत्र नञः प्रश्लेषः कर्तव्यः, यतो भूतानां = जीवानां, एषा प्रवृत्तिः = उत्पत्तिस्थानम्, भूतानां = पिशाचप्रायाणां वा एषा प्रवृत्तिर्न तु विवेकिनामिति व्याख्येयम्। "ननु निवृत्तिनिरवद्याद्वस्तुनो विधीयमाना महाफला सावद्याद्वा? यदि निरवद्यात्तदा यत्याश्रमादेरपि निवृत्तिरङ्गीकर्तव्या, तस्य निरवद्यत्वात् । न चैतदिष्टम् । अथ द्वितीयपक्षस्तदा मांसभक्षणस्य सावद्यत्वेन सदोषताप्राप्तेरिति।" (अष्ट. प्र. १८/८ वृ.)।
किञ्च मांसभक्षणादिनिवृत्तेर्महाफलत्वानुपपत्त्यैव मांसभक्षणादेरनिष्टसाधनत्वोन्नयनात्तत्र दुष्टत्वमव्याहतप्रसरम् ।
किञ्च मांसशब्दार्थविभावनेनैव तद्भक्षणस्य दुष्टत्वं प्रतीयते, तदुक्तं मनुना - 'मां स भक्षयिताऽमुत्र, यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।। (म. स्मृ. ५/५६)
प्रश्लेषः = अनुक्तशब्दस्य प्रवेशः। कदाचित्परस्य प्रवृत्तिशब्दस्योत्पत्तिस्थानार्थकत्वे विप्रतिपत्तिरस्वरसो वा स्यादित्याशयेन वाकारेण कल्पान्तरः प्रसिद्धार्थकः प्रदर्शितः। एतेन ज्ञानसिद्धिकारस्येन्द्रभतेः "नरश्वहयगोदीपं, सफल हो सकती है। अतः मांसभक्षणादिरूप प्रवृत्ति अपनी निवृत्ति को सफल बनाने का काम करने से निर्दोष है - यह सिद्ध होता है।
निर्विषयत्वेन इति.। इसके अतिरिक्त बात यह है कि निवृत्ति अभावरूप होने से सविषयक = सप्रतियोगिक ही होती है, निष्प्रतियोगिक नहीं। अर्थात् जिस अभाव का प्रतियोगी असत् होता है, उसकी निवृत्ति = अभाव भी असंभव है। नरपुच्छभक्षण की निवृत्ति कभी सुनी नहीं है, क्योंकि नरपुच्छ अप्रसिद्ध होने के कारण नरपुच्छभक्षण भी असत् है तब उसकी निवृत्ति कैसे संभवित है? यदि मांसभक्षण आदि में प्रवृत्ति ही न होती तब तो मांसभक्षण आदि ही असत होने से उसकी निवृत्ति भी असंभवित हो जायेगी, क्योंकि तब निवृत्ति निष्प्रतियोगिक = निर्विषयक यानी असदविषयक हो जाने से अपने स्वरूप को ही नहीं पायेगी। इस आपत्ति का निवारण करने के लिए मांसभक्षण आदि का प्रसिद्ध होना जरूरी है। वह तभी संभव है यदि कोई मांसभक्षण आदि में प्रवृत्ति करे। इस तरह मांसभक्षण आदि की निवृत्ति की, जिसका फल महान है, संभावना में निमित्त होने से मांसभक्षणादि दुष्ट कैसे होगे? अर्थात् मांसभक्षणादि निर्दोष ही है" -
* मांसभक्षणादि सदोष है * तत्रोच्यते. इति । तब शिष्य को सन्मार्ग पर लाने के लिए उसे प्रश्न करना चाहिए कि - 'मांसभक्षणादि की निवृत्ति १ क्या दुष्ट प्रवृत्ति के परिहाररूप होने से महान फल की जनक है या २ अदुष्ट प्रवृत्ति के परिहाररूप होने से? प्रश्न का आशय यह है कि निवृत्ति का, जिससे महान फल आदि की प्राप्ति होती है, विषय क्या सदोष है या निर्दोष? यदि इनमें से प्रथम विकल्प का स्वीकार किया जायेगा तब तो मांसभक्षणादिरूप प्रवृत्ति निर्दोष कैसे सिद्ध होगी? क्योंकि मांसभक्षणआदिरूप दुष्ट प्रवृत्ति का परिहाररूप होने से मांसभक्षणादि की निवृत्ति महान फल का निमित्त है - ऐसा आपने स्वयं स्वीकार कर लिया है। अर्थात् 'जिसकी निवृत्ति से महान फल की प्राप्ति होती है उस निवृत्ति का विषय सदोष है' इस विकल्प के स्वीकार में तो निवृत्ति के विषयभूत मांसभक्षणादि के प्रवर्तन में सदोषता का स्वीकार ही फलित होता है। ___ अन्त्ये च. इति । यदि दूसरे विकल्प का स्वीकार किया जाय, तब तो मांसभक्षण की प्रवृत्ति भी, जो कि आपको सिर्फ निर्दोषरूप से अभिप्रेत है न कि महान फल के संपादकरूप से, महान फल की संपादक हो जायेगी क्योंकि मांसभक्षण की निवृत्ति आपके अभिप्राय के अनुसार महान फल की जनक होने से निर्दोष ही सिद्ध होती है और निर्दोष मांसभक्षणादिनिवृत्ति के परिहार रूप होने से मांसभक्षणादि की प्रवृत्ति भी महान अभ्युदय का कारण कहलायेगी, जो आपको भी इष्ट नहीं है। साथ-साथ आपके वचन में पूर्वापर विरोध भी आयेगा, क्योंकि आपने यह प्रतिज्ञा की है कि 'मांसभक्षणादि प्रवृत्ति सिर्फ निर्दोष है और उसकी निवृत्ति महान अभ्युदय की जनक है' - और द्वितीय विकल्प के स्वीकार से 'मांसभक्षणादि प्रवृत्ति महान अभ्युदय की जनक है' यह सिद्ध हुआ
१ मुद्रितप्रतौ - अत्रो. इति पाठः। २ मुद्रितप्रतो - 'न(अप्र)श्लेष' इति पाठः ।