Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 374
________________ * जातित्रयकल्पनानिराकरणम् * ३४३ यथा तृणादीनामेकशक्त्या वह्निहेतुत्वं तथा बहूनामप्युपायानामेकयैव शक्त्या कर्मक्षयहेतुत्वं नानुपपन्नमिति सर्वमवदातम् ।।१०० ।। तृणादितो वन्यनुत्पत्त्यापत्तेः किन्तु सामान्यरूपम् । न च तस्यैकपदवाच्यत्वमप्रसिद्धमिति वाच्यम्, तत्र तद्वाचकत्वस्य प्रसिद्धत्वात् । तदुक्तं 'एकोऽन्यार्थे प्रधाने च प्रथमे केवले यथा। साधारणे समानेऽल्पे सङ्ख्यायां च प्रयुज्यते ।।' () तच्च समवायेनाऽपृथग्भावसम्बन्धेन वा वर्तत इत्यन्यदेतत् । एवकारेण जातित्रयकल्पनाव्यवच्छेदः कृतः । अयं भावः वह्निनिरूपितकारणतायास्तृणत्वेन तृणनिरूपितकार्यतायाश्च वह्नित्वेन प्रथमतो ग्रहेऽपि वह्निसामान्यतृणसामान्यकार्यकारणभावोपयोगे तृणत्वेन व्यभिचारस्फूर्ती शक्तिविशेषेणैव तृणे वह्निसामान्यहेतुताया ऊहाख्यप्रमाणेन परिच्छेदात् । न चेदेवं दण्डघटादेरपि कार्यकारणभावो दुर्घटः स्यात्, घटत्वस्य मृत्त्वस्वर्णत्वादिसङ्कीर्णतया जातित्वाऽसिद्धेः । किञ्च सिद्धरसस्पर्शाल्लोहादौ तपनीयपरिणामः शक्तिविशेष विना दुर्घटः, सिद्धरसस्पर्शध्वंसविशिष्टलोहे तपनीयारम्भस्य त्वया वक्तुमशक्यत्वात् । लोहस्यान्त्यावयवित्वात्तत्र लोहनाशतपनीयावयवाऽऽगमनकल्पनस्य तु अनुभव * तृणादिजन्य वह्नि मणिआदिजन्य वह्नि से विजातीय नहीं है * समाधान :- न, अनुप. इति । वाह! आप बात तो बड़ी बड़ी करते हैं मगर सब तथ्यहीन हैं। इसके दो हेतु हैं। प्रथम हेतु है जातिविशेष की अनुपलब्धि । "तृणादिजन्य वह्नि में एक जातिविशेष है, जो अरणि आदि से जन्य अग्नि में नहीं है...." इत्यादि जो आपने कहा है, वह असिद्ध है, क्योंकि तृणजन्य वह्नि में और अरणिजन्य वह्नि में, गौर से निगाह डालने के बावजूद भी, जातिविशेष की उपलब्धि (ज्ञान) नहीं होती है, जैसे कि घटत्व से भिन्न जाति की पट में उपलब्धि होती है वैसे। दूसरा हेतु है गौरव दोष । अर्थात् आपके अभिप्राय के अनुसार कार्य-कारणभाव का निश्चय करने के लिए तीन जातिविशेष की, जो अग्नि में रहती हैं, कल्पना करनी पड़ती है। तीन जातिविशेष की कल्पना का गौरव आपके पक्ष में प्राप्त है, जो कि अप्रामाणिक होने से अस्वीकार्य है। इसकी अपेक्षा तृणादि और वह्नि के बीच कार्य-कारणभाव का निश्चय करने के लिए तीनों में एक एक शक्ति की कल्पना करना ही लाघव गुण से मुनासिब लगता है। तीनों में वह्निजनक एक शक्ति मानने से, एक शक्तिमत्तया तीनों में वह्निकारणता रहेगी। अर्थात् वह्निकारणतावच्छेदक वह शक्ति ही होगी जो तीनों में अनुगत है। अतः व्यतिरेक व्यभिचार दोष का भी कोई अवकाश नहीं रहता है। वह इस तरह। देखिए, घट का कारण दण्ड है और कारणतावच्छेदक दंडत्व जाति है। दण्डत्वरूप से दंड घट का कारण है, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि जहाँ घट की उत्पत्ति होती है वहाँ सब दंड को उपस्थित रहना ही पडे। कारणतावच्छेदक दंडत्व का आश्रय कोई एक दंड भी उपस्थित हो, फिर भी घट की उत्पत्ति हो जाती है। इसको कोई व्यतिरेक व्यभिचार नहीं मानते हैं। ठीक इसी तरह तीनों को एकशक्तिमत्त्वरूप वह्नि का हेतु मानने का अर्थ यह नहीं है कि-'जहाँ अग्नि का उत्पाद हो वहाँ तृण आदि तीनों की अवश्य ही उपस्थिति हो' । कारणतावच्छेदक शक्ति के आश्रय तीनों में से कोई एक भी हो तब भी वह्नि की उत्पत्ति होने में कोई व्यतिरेक व्यभिचार नहीं है, क्योंकि यावत्कारणतावच्छेदक के आश्रय की विद्यमानता कार्योत्पत्ति के लिए आवश्यक है, कारणतावच्छेदक के यावत् (=सकल) आश्रय की नहीं। इस तरह तीन जातिविशेष की कल्पना करने की अपेक्षा तीनों में एक अनुगत शक्ति की कल्पना करना ही न्यायोचित है। * तपादि में एकशक्तिमत्त्वेन मोक्षहेतुता * तथा बहूना, इति। जिस तरह तृणादि तीनों एक शक्ति से वह्नि के हेतु हैं, ठीक वैसे ही स्वाध्याय, तप, वैयावच्च, ज्ञान, ध्यान, संयम आदि अनेक साधन एक शक्ति से कर्मक्षय के हेतु हैं-यह हमारा सिद्धान्त है। मतलब कि तप आदि के बिना संयम से ही किसी का मोक्ष हो जाए तब भी कोई व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है, क्योंकि कर्मक्षयकारणतावच्छेदकीभूत शक्ति तो संयम १ एतद्भाषारहस्यं रचितं भव्यानां तत्त्वबोधार्थम । शोधयन्तु प्रसादपरास्तद्गीतार्था विशेषविदा।।१०१।।

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