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* प्रकरणकारीयप्रशस्तिः *
३४५ (अथ प्रकरणकारगुरुपरम्पराप्रशस्तिः ) सोम इव गोविलासैः कुवलयबोधप्रसिद्धमहिमकलः । श्रीहीरविजयसूरिस्तपोगच्छव्योमतिलकमभूत् ।।१।। श्रीविजयसेनसूरिस्तत्पट्टोदयरविरिवाभूत् । यस्य पुरो द्योतन्ते शलभा इव भान्ति कुमतिगणाः ।।२।। तत्पट्टनन्दनवने कल्पतरुर्विजयदेवसूरिवरः । विबुधैरुपास्यमानो जयति जगज्जन्तुवाञ्छितदः ।।३।। तत्पट्टरोहणगिरौ सुररत्नं विजयसिंहसूरिगुरुः । भूपालभालतिलकीभूतक्रमनखरुचिर्जयति ।।४।। राज्ये प्राज्ये विजयिनि तस्य जनानन्दकन्दजलदस्य। ग्रन्थोऽयं निष्पन्नः सन्नयभाजां प्रमोदाय ।।५।। यस्यासन् गुरवोऽत्र जीतविजयप्राज्ञाः प्रकृष्टाशयाः भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः। प्रेम्णां यस्य च सद्म पद्मविजयो जातः सुधीः सोदरः सोऽयं न्यायविशारदः स्म तनुते भाषारहस्यं मुदा ।।६।। कृत्वा प्रकरणमेतत् यदवापि शुभाशयान्मया कुशलम् । तेन मम जन्मबीजे रागद्वेषौ विलीयेताम् ।।७।। सूर्याचन्द्रमसौ यावदुदयेते नभस्थले । तावन्नन्दत्वयं ग्रन्थो वाच्यमानो विचक्षणैः ।।८ ।। असतां कर्णयोः शूलं सतां कर्णामृतच्छटा। विभाव्यमानो ग्रन्थोऽयं यशोविजयसम्पदे ।।९।।
* प्रकरणकारीयप्रशस्ति का भावार्थ * अपने किरणों के विलास से कुवलय (रात्रीविकासी कमल) को प्रफुल्ल करने से जिसकी महिमा जगत में प्रसिद्ध है ऐसा चाँद जैसे विशाल गगन का सौम्य तिलक है ठीक वैसे ही कुवादिओं के वृंद (=कुवलय) को अपनी वाणी के विलास से प्रतिबोध कराने के सबब जिसकी महिमा जगप्रसिद्ध है ऐसे श्रीमद् विजय हीरसूरीश्वरजी महाराजा तपगच्छरूप विशाल गगन में सौम्य तिलकसम हुए।।१।। __जैसे पुनम का सौम्य चाँद गगनमंडल में से बिदा होता है तब उसके ही पट्ट में (=रास्ते में) उदयचल पर तेजस्वी सूर्य का उदय होता है ठीक वैसे ही श्रीमद् हीरसूरीश्वरजी महाराज के पट्ट पर सूर्य की भाँति तेजस्वी श्रीमद् विजय सेनसूरीश्वरजी महाराज आये थे, जिनके सामने कुमतिवाले लोगों के समूह जुगनु जैसे लगते हैं।।२।।
श्रीमद्विजय सेनसूरीश्वरजी महाराजा के पट्टरूप नंदनवन में कल्पवृक्ष के समान जगत के जीवों को मनोवांछित देने वाले श्रीमद्विजय देवसूरीश्वरजी महाराजा जयवंत हैं, जिनकी देवों भी उपासना करते हैं।।३।।
श्रीमद्विजय देवसूरिजी महाराजा के पट्टरूप रोहणाचल पर दिव्यरत्न सम श्रीमद्विजय सिंहसूरिराज जयवंत है, जिसके पाँव के नख की प्रभा उसके पाँव में झूके हुए अनेक राजाओं के भालप्रदेश में तिलक के समान देदीप्यमान है।।४।।
लोगों के आनन्दरूपी वृक्ष के मूल के विकास के लिए वर्षा करनेवाले बादल के समान श्रीमद्विजय सिंहसूरीश्वर महाराजा के विजयवंत विशाल राज्य में, सम्यक् नय को भजनेवाले बुध जनों के आनंद के लिए यह ग्रन्थ निष्पन्न हुआ है।५।।
महामना महाप्राज्ञ श्रीजीतविजयजी महाराजा जिसके परमगुरु थे तथा नयनिष्णात विद्वद्वर्य श्रीनयविजयजी महाराजा जिसके विद्यागुरु रूप से देदीप्मान है, एवं प्रेमपात्र पंडितवर्य पद्मविजयजी जिसके सहोदर भ्राता है, उस न्यायविशारद ने आनंद से भाषारहस्य ग्रंथ का व्याख्यान किया है।।६।।
शुभाशय से इस भाषारहस्य प्रकरण की रचना कर के मैंने जो पुण्य प्राप्त किया है उससे जन्मबीजभूत मेरे राग-द्वेष विलीन हो।७।। जब तक गगन में चाँद-सूरज उदित रहते हैं तब तक विचक्षण पुरुषों से पढा जाता यह ग्रन्थ विद्वानों को आनन्द दे।।८।।
दुर्जनों के कान में शूलसमान और सज्जनों के कर्ण में अमृतवर्षासमान यह ग्रन्थ चिंतन करते करते यश और विजय की सम्पत्ति के लिए हो। यहाँ 'यशोविजयसम्पदे' पद के द्वारा प्रकरणकार महोपाध्यायजी ने अपना नाम 'यशोविजय' रूप से सूचित किया है।।९।।
अंत में श्रीश्रमणसंघ के कल्याण की अपनी भावना ग्रन्थकार ने व्यक्त की है।
इस तरह न्यायविशारद, न्यायाचार्य, मूछालीसरस्वती, महामहोध्याय श्रीयशोविजयजीगणिवर्यविरचित स्वोपज्ञविवरणविभूषित श्रीभाषारहस्य प्रकरण का मुनियशोविजयजी के द्वारा किया गया हिन्दी भावानुवाद सानंद पूर्ण हुआ। महासुद - १, वि. सं. २०४६, आराधना भवन, मद्रास।