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३४२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. १००
० तृणारणिमणिन्यायविचार ० किं न दृष्टं तृणारणिमणीनामेकवह्निहेतुत्वम्?
तृणादिजन्यवह्नौ जातिविशेषोऽस्त्येवेति चेत्? न, अनुपलम्भात्, जातित्रयकल्पनात् एकशक्तिकल्पनाया एव लघुत्वाच्च । सति कारणत्वं सम्भवतीति पूर्वपक्षाशयः। काक्वा समाधत्ते किं न दृष्टमिति। दृष्टमेवेत्यर्थः । तृणारणीति। घर्षणद्वारा वह्निजनकं काष्ठं अरणिः, मणिः = सूर्यकान्तमणिः तृणादि विनाऽरण्यादितोऽपि वह्नरुत्पादात वह्नित्वावच्छिन्नं प्रति तृणादेर्व्यभिचारेऽपि एकवह्निहेतुत्वं यथाऽस्ति तथैव प्रकृतेऽपि स्वाध्यायादीनां बहूनामुपायानामेकमोक्षलक्षणफलहेतुत्वं सुघटमिति उत्तरपक्षाशयः ।
ननु तृणारणिस्थले न वह्निसामान्यस्योत्पत्तिः स्वीक्रियते किन्तु वह्निविशेषस्यैवेत्याशयेन पुनः शङ्कते तृणादिजन्येति। जातिविशेषः तार्णत्वादिजातिविशेषः। अयं भाव वह्नित्वावच्छिन्नं प्रति तृणादेः कारणत्वं नास्ति परस्परव्यभिचारात् किन्तु तार्णवहिलं प्रति तृणस्य आरणेयवािँ प्रत्यरणे: माणेयवहिलं प्रति मणेश्च कारणत्वमुपेयते, तेन न व्यभिचार इति पूर्वपक्षाशयः।।
हेतुद्वयेन तन्नकरोति नेति। अनुपलम्भादिति तृणादिजन्यवन्यपेक्षयाउंरणिजन्यवह्नौ वैजात्यस्यानुपलब्धेः, चैत्रीयघटापेक्षया मैत्रीयघटे इवेति भावः।
हेत्वन्तरं दर्शयति जातित्रयकल्पनादिति तार्णत्वादिरूपवह्निनिष्ठजातित्रयकल्पनाऽपेक्षया, एकशक्तिकल्पनायाः = तृणफूत्कारारणिनिर्मथनमणितरणिकरसंयोगेष्वेकशक्तिकल्पनायाः, एव लघुत्वाच्च । एकत्वं चात्र न सङ्ख्यात्मकगुणविशेषः, तृणविनाशेऽरण्यादिनिष्ठशक्तिनाशापत्तेः । न वा त्रिषु पर्याप्तिसम्बन्धेन वृत्तिर्गुणविशेषः अरण्यादिकं विना मणि से आग उत्पन्न होती है वहाँ तृण या अरणि की उपस्थिति नहीं रहती है। फिर भी बलवान् अन्वय सहचार से तृण, अरणि, मणि वह्नि के कारण माने जाते हैं। वैसे ही कभी वैयावच्च आदि के बिना ही स्वाध्याय आदि से मोक्ष होता है और कभी स्वाध्याय आदि के बिना ही वैयावच्च आदि से। फिर भी वैयावच्च आदि तथा स्वाध्याय, ध्यान आदि मोक्ष के कारण कहे जाए-वह मुनासिब ही है, अन्यथा तृणारणिस्थल में भी अग्निरूप एक कार्य के प्रति कारणता असिद्ध बनेगी।
शंका :- तृणादिजन्य. इति। हमारे लिए तो यह इष्टापत्ति ही है। हम तो मानते ही हैं कि तृण, अरणि और मणि सजातीय वह्नि की उत्पत्ति के हेतु नहीं हैं मगर विजातीय वह्नि की उत्पत्ति में कारण होते हैं। आशय यह है कि-तृणजन्य अग्नि में एक जातिविशेष है, जो अरणि और मणि से जन्य अग्नि में नहीं है। अरणिजन्य अग्नि में जातिविशेष है जो अरणि और तृण से जन्य अग्नि में नहीं है। तथा सूर्यकान्त मणि से जन्य अग्नि में एक जातिविशेष है, जो तृण और अरणि से जन्य अग्नि में नहीं है। अर्थात् तृण, अरणि और मणि एक ही अग्नि के कारण नहीं है मगर विलक्षण अग्नि के कारण होते हैं। तृण का कार्यता अवच्छेदक धर्म तार्णत्व जातिविशेष है, जो तृणजन्य सब अग्नि में विद्यमान है। अरणि का कार्यतावच्छेदक धर्म आरणेयत्य जाति है, जो अरणिजन्य सब अग्नि में विद्यमान है। तथा सूर्यकान्त मणि का कार्यतावच्छेदक माणेयत्व जाति है, जो मणिजन्य सब अग्नि में विद्यमान है। अतः अरणि के बिना जहाँ तृण से ही अग्नि की उत्पत्ति होती है वहाँ व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश ही नहीं है, क्योंकि तार्णत्वजातिविशिष्ट अग्नि का कारण अरणि आदि है ही नहीं।
इस तरह मानने पर तो आपके मोक्ष में भी वैलक्षण्य की सिद्धि हो जाएगी जो आपको अभिमत नहीं है। देखिए, तृणारणि स्थल की तरह प्रस्तुत में व्यतिरेक व्यभिचार का निवारण करने के लिए यह कहना होगा कि- "वैयावच्च जन्य मोक्ष में एक जातिविशेष है जो ध्यान, चारित्र आदि से जन्य मोक्ष में नहीं है। तथाचारित्रजन्य मोक्ष में एक जातिविशेष है जो वैयावच्च, चारित्र आदि से जन्य मोक्ष में नहीं है। तथा स्वाध्याय से जन्य मोक्ष में एक जातिविशेष है जो वैयावच्च आदि से जन्य मोक्ष में नहीं है। अतः बिना वैयावच्च के स्वाध्याय से होनेवाले मोक्ष में व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है, क्योंकि उस मोक्ष का कारण वैयावच्च है ही नहीं" | मगर ऐसा स्वीकार करने पर आपको प्रतिनियत उपाय में प्रवृत्ति का नियमन करना ही होगा। इसके अस्वीकार पक्ष में कार्यविशेष की प्राप्ति कैसे बनेगी?