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* सिद्धभेदोपपत्तिः *
कथं तर्हि व्यभिचाराबहूनामुपायानामेकफलहेतुत्वमिति चेत्? स्यादित्याशंकायामाह स्वरूपात्मकस्य प्रतियोगिस्वरूपस्य च तस्य प्रतियोगिनिष्ठविशेषधर्मस्य, हेतुहेतुमद्भावभेदानियामकत्वात = फल-फलवभावभेदनियामकत्वाभावात् । अयं भावः यथा चैत्रीयकृतौ चैत्रीयत्वं कृतिस्वरूपमेव न त्वतिरिक्तम तथैव चैत्रीयकर्मणि चैत्रीयत्वं कर्मस्वरूपमेव न त्वतिरिक्तम। सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन कार्यकारणभावाऽभ्युपगमान्नातिप्रसङ्गः अन्यथा इच्छाकृत्योः जन्यजनकभावं परित्यज्य चैत्रीयेच्छादिरूपेणाऽनन्तोत्पाद्योत्पादकभावकल्पनाप्रसङ्गात्।
अथैवं कृत्स्नकर्मक्षयात्मके मोक्षे तीर्थकरातीर्थकरसिद्धादिपञ्चदशभेदाभिधानं सिद्धान्तप्रोक्तं कथं सङगच्छते? अतीतनयाभिप्रायेणेति बुध्यताम् । सामग्र्याः कार्यतावच्छेदकावच्छिन्नोत्पत्तिव्याप्यत्वात्तीर्थकरसिद्धत्वाद्यवच्छिन्नस्याऽनापत्तिरेव। न हि तीर्थकरसिद्धत्वादिकं कार्यतावच्छेदकम्, अर्थसमाजसिद्धत्वात् अन्यथा नीलघटत्वादिकमपि तथा स्यादिति विभावनीयम्।
ननु स्वाध्यायादिकं विनैव भरतादेः मुक्तिदर्शनात् कथं स्वाध्याय-तपः-संयमादीनामनेकेषामुपायानां मुक्तिहेतुत्वमित्याशयेन शङकते-कथमिति। नैवेत्यर्थः काक्वा प्रतीयते । तर्हि = फलवैजात्यानभ्युपगमे, व्यभिचारात = व्यतिरेकव्यभिचारात्, बहूनां स्वध्यायतपःसंयमवैयावृत्त्यादीनामुपायानां एकफलहेतुत्वं एकधर्मावच्छिन्न-कृत्स्नकर्मक्षयात्मकफलोपायत्वम्। न हि कार्याधिकरणवृत्ति-कार्योत्पादाव्यवहितपूर्वकालीनात्यन्ताभावप्रतियोगित्वरूपे व्यतिरेकव्यभिचारे
* कर्माष्टकवृत्ति चैत्रीयत्वादि धर्म कर्मस्वरूप ही है, अतिरिक्त नहीं * समाधान :- स्वरूपा. इति। ज्ञानावरणीय आदि कर्म में जो चैत्रीयत्व, मैत्रीयत्व आदि धर्म हैं वे कर्मस्वरूप ही हैं, उनसे अतिरिक्त नहीं हैं। जो धर्म प्रतियोगिरूप ही होता है वह धर्म कार्य-कारणभाव का भेदक नहीं होता है। अन्यथा ज्ञान, इच्छा, कृति आदि में जो प्रसिद्ध कार्यकारणभाव है उसे छोड कर चैत्रीय ज्ञान, चैत्रीय इच्छा, चैत्रीय कृति (यत्न) आदि में ही विशेषरूप से कार्यकारण-भाव मानना पडेगा। ऐसा होने पर अनंत कार्य-कारणभाव मानने की आपत्ति होगी। कर्मक्षय में ज्ञान दर्शन, तप, चरित्र आदि सामानाधिकरण्य संबंध से कारण होते हैं। अतः चैत्र के ज्ञान, दर्शन आदि से चैत्र के कर्मों का ही नाश होगा, न कि मैत्र के कर्म का। अतः कृत्स्नकर्मक्षय में विशेषता असिद्ध ही है। अतएव प्रवृत्तिविशेष का नियमन करना नामुनासिब है। अतः मूल गाथा में जो कहा गया है कि जिस तरह रागादि का विलय हो वैसे प्रवृत्ति करना-वह ठीक ही है। अतः उपायविशेष में प्रवृत्ति के नियमन की बात-आपकी गेरसमज की निपज है। ____ शंका :- कथं. इति। यदि कृत्स्नकर्मक्षयरूप कार्य में वैजात्य नहीं है तब तो विभिन्न उपायों और कृत्स्नकर्मक्षय के बीच कार्यकारण कैसे हो सकेगा? इसका कारण यह है कि-कारण वह कहा जाता है जो अपने कार्य की उत्पत्ति काल में अवश्य विद्यमान हो अर्थात् उसके बिना कार्य की उत्पत्ति न हो। मगर प्रस्तुत में तो अमुक जीव वैयावच्च के बिना ही ज्ञान-ध्यान आदि से मोक्ष को प्राप्त करता है और दूसरा वैयावच्च के द्वारा। तब वैयावच्च को मोक्ष का कारण कैसे कहा जा सकता है? ज्ञानादिजन्य मोक्ष तो वैयावच्च के बिना उत्पन्न हो जाता है। इस तरह किसीका मोक्ष दान से, किसी का मोक्ष शील से, किसीका मोक्ष तप से, किसीका मोक्ष भावधर्म से होता है। तब इन सब को मोक्ष का कारण कैसे कहा जा सकता है? दानादि धर्म यदि मोक्ष के कारण है तब उसके बिना चारित्र आदि से क्या मुक्ति हो सकती है? अतः कार्य में वैजात्य मानना आवश्यक है। दानादिजन्य क्ष को तप-चारित्रादिजन्य मोक्ष से विजातीय मानना आवश्यक है।
* तप आदि में तृणारणिन्याय से मोक्षहेतुता * समाधान :- किं न. इति। आप भी अलौकिक बात कहते हैं। क्या आपने यह सुना नहीं है कि तृण अरणि, मणि एक ही अग्नि के हेतु होते हैं? जहाँ तृण से अनल उत्पन्न होता है वहाँ अरणि और सूर्यकान्त मणि नहीं होते हैं। जहाँ अरणि से, जो एक काष्ठ है जिसके घर्ण से अग्नि की उत्पत्ति होती है, आग उत्पन्न होती है वहाँ तृण या सूर्यकान्त मणि नहीं होते हैं। तथा जहाँ सूर्यकान्त