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* मरणस्वरूपप्रकाशनम् *
फलविशेषस्यैवासिद्धेः, राजरङ्कमरणयोरविशेषदर्शनेनाऽऽयुःकर्मण इव कर्मान्तरस्यापि क्षये विशेषाभावात् । न च प्रतियोगिविशेष
मूलं नास्ति कुतः शाखा ? इति न्यायेन तन्निराकरोति फलविशेषस्यैवसिद्धेरिति । रागद्वेषविलयरूपफले विशेषधर्मस्यैवासिद्धत्वादित्यर्थः । भावात्मके हि कार्ये कारणकृतवैजात्यं संभवति नाभावाख्ये कार्ये । न हि स्वर्णदण्डकृतघटध्वंसात्काष्ठदण्डकृतघटध्वंसे वैजात्यमस्तीति भावः । तदेव प्रदर्शयति राजरङ्केति । राजमरणात् रङ्कमरणे विशेषस्याऽदर्शनेनाऽऽयुःकर्मक्षये विशेषाभावोऽनुमीयते तद्वत् कर्मान्तरक्षयेऽपीति भावः । मरणं च सकलप्राणच्छेदः । केचित्तु दीर्घनिद्रा मृत्युरित्याहुः । अन्ये तु महानिद्रा मृत्युरिति वदन्ति । चरमशरीरप्राणसंयोगध्वंसो मृत्युरित्येके । विज्ञानोपरमावस्था मृत्युरित्यपरे । एतच्छरीरभोगप्रापककर्मोपरमेण द्विविधदेहाभिमाननिवृत्त्या भाविशरीरप्राप्तिपर्यन्तं सम्पिण्डितकरणग्रामो मरणमितीतरे । प्रकृते प्रयोगा एवम् राजरङ्कायुःकर्मक्षयौ न विलक्षणौ तत्कार्ययोर्विशेषाभावात्। यदि च वैयधिकरण्यं विभाव्यते तदा सजातीयकार्यजनकत्वादिति हेतुर्वाच्यः । ज्ञानावरणीयादिसकलकर्मक्षया न परस्परं विलक्षणाः कर्मक्षयत्वात् राजरङ्कायुःक्षयवत् । एवं जीवानां मोक्षा न परस्परं विलक्षणाः कृत्स्नकर्मक्षयात्मकत्वात् ।
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ननु राजरंकायुःकर्मक्षययोः काममस्तु अवैलक्षण्यं अनुयोगिभेदस्य अभाववैलक्षण्याप्रयोजकत्वात् तथाप्यायुर्मोहनीयादिकर्मक्षयेषु वैलक्षण्यं स्यादेव अभाववैलक्षण्यप्रयोजकस्य प्रतियोगिभेदस्य सत्त्वात्, अन्यथा घटपटध्वंसयोरपि वैलक्षण्यं न स्यादित्याशयं निराकर्तुमुपन्यस्यति न चेति । प्रतियोगिविशेषकृतः=आयुर्मोहादिप्रतियोगिभेदकृतः
* रागद्वेष विलय में वैलक्षण्य नहीं है
समाधान :- विशेष रागद्वेषविलयरूप फल की प्राप्ति करने की आप अभिलाषा कर रहे हैं मगर रागद्वेषविलयरूप फल में कुछ भी विशेषता ही नहीं है, क्योंकि रागद्वेषक्षय समान ही होता है। जैसे कि युद्ध या बीमारी आदि से राजा या रंक का मृत्यु होने पर भी मृत्यु में कुछ भी भेद नहीं रहता है । दश प्राणों के त्यागरूप मृत्यु राजा और रंक में अमीर और गरीब में समान ही है। मरण का कारण है आयुष्य का कर्म क्षय । आयुष्यकर्मक्षय के कार्यरूप मौत में कुछ भी विशेषता उपलब्ध न होने से उसके कारणस्वरूप आयुष्य कर्मक्षय में, चाहे वह राजा का हो या रंक का हो, कोई विशेषता नहीं है- यह सिद्ध होता है। जैसे राजा और रंक दोनों के आयुष्य कर्म अलग अलग है फिर भी उनके क्षय में कोई वैजात्य नहीं है, ठीक उसी तरह अन्य कर्म के क्षय में भी समानता ही अनुमान प्रमाण से सिद्ध होगी।
अन्य दृष्टांत से भी हम उपर्युक्त बात को समझ सकते हैं कि जिसको घट फोडना है वह चाहे सुवर्ण से दंड से या लोह के दंड से या काष्ठ के दंड से या हाथ से क्यों न घट फोडे, मगर घटध्वंस में कोई वैजात्य या वैलक्षण्य नहीं होता है। ठीक उसी भाँति संपूर्ण क्षय चाहे स्वाध्याय से हो, चाहे वैयावच्च से हो, चाहे परमात्मभक्ति से हो, चाहे विनय से हो मगर उसमें कुछ वैविध्य नहीं है- यह सिद्ध होता है। अतः 'फलविशेष की प्राप्ति के लिए उपायविशेष में उद्योग करना आवश्यक है, न कि उपाय सामान्य में' ऐसा वचन बिना दिवार के चित्रकामतुल्य प्रतीत होता है। जो कुछ भेद है वह संसारी अवस्था में है। सिद्ध अवस्था में कुछ भेद या तरतमभाव नहीं है।
शंका :- न च प्रतियो. इति । कर्मक्षय अभावात्मक है और अभाव का अनुयोगी (अधिकरण) भिन्न हो तब भी अभाव बदलता नहीं है। इसलिए राजा का आयुष्यकर्मक्षय और रंक का आयुष्यकर्मक्षय परस्पर विजातीय न हो वह ठीक ही है। अभाव का भेदक तो प्रतियोगिभेद ही होता है। प्रतियोगी में विशेषता होने पर अभाव बदल जाता है जैसे कि घटध्वंस से पटध्वंस भिन्न है, क्योंकि उनके प्रतियोगी परस्पर भिन्न हैं। मगर राजा और रंक के आयुष्य कर्म क्षय के प्रतियोगी आयुष्य कर्म में तो वैजात्य नहीं है। अतः वे दोनों ही आयुष्यकर्मक्षय सजातीय हो वह मुनासिब है। मगर आयुष्य कर्म का क्षय और उससे अन्य मोहनीय आदि कर्म का क्षय सजातीय नहीं है किन्तु विजातीय हैं। अतः उनमें विशेषता मानना न्यायप्राप्त है। इस तरह ज्ञानावरणादि कर्म प्रतियोगिक क्षय में भेद सिद्ध होने पर तत्तत्कर्मक्षयकूट रूप मोक्ष में भी विजातीयता सिद्ध होगी। इस तरह जब फलविशेष की सिद्धि हो गई तब तो उसका