Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 368
________________ * अश्वघोषमतालोचनम् * ३३७ तदेवं चारित्रशुद्धेर्मोक्षफलत्वमुक्त्वा प्रकृतग्रन्थोप'योगमाह तम्हा बुहो भासारहस्समेयं चरित्तसंसुद्धिकए समिक्ख । जहा विलिज्जति हु रागदोसा, तहा पवट्टिज्ज गुणेसु सम्म ।।१०० ।। तस्मात् = उक्तहेतोः, बुधः = विचक्षणः, चारित्रशुद्धेः कृते एतद् भाषारहस्यं समीक्ष्य हुः = निश्चये, यथा रागद्वेषौ विलीयेते ___ मोक्षसौख्यमिति। अनेन आत्यन्तिकात्मगुणध्वंसो मुक्तिरिति मतं निरस्तम् कर्मनाशेन दुःखनाशेऽपि सुखादिसत्त्वे विरोधाभावात् स्वर्णमलनाशे कालिमानाशेऽपि कान्त्यादिवत् । अत एव सुखदुःखयोरविनाभावित्वकल्पनाऽपि प्रत्युक्ता। __यत्तु सौदरनन्दकाव्ये अश्वघोषेनोक्तं दीपो यथा निवृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चित् विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। जीवस्तथा निवृत्तिमभ्युपेतो नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चित् विदिशं न कांचित् क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम्।। (सौ.म.१६/२८-२९) तदसत्, स्नेहादिक्षयेन भास्वरत्वादिनारकादिपर्यायमात्रस्यैव ध्वस्तत्वात दीपजीवयोर्द्रव्यत्वेन ध्वंसाप्रतियोगित्वात रूपान्तरेणावस्थितत्वस्य सिद्धेः। किञ्च 'निब्बानं परमं सुखं' (ध.प.१५/८) इति त्वदभिमतधम्मपदवचनादपि निर्वाणस्य भावरूपता सिद्धा। तदुक्तं मज्झिमनिकायेऽपि अरियपरियेसनसूत्रे 'अनुत्तरं योगक्खेमं निव्वानं अज्झगम' (म.नि.अरि.सू.२६)। सर्वथा शून्यत्वे निर्वाणस्याऽनुभवगम्यत्वमपि न सङ्गच्छेतेति दिक् ।। ९९।। जहा विलिज्जंति इति। अन्यत्राऽप्युक्तं बहुशः प्रकरणकारेण यदुत 'किं बहुणा इह जह जह रागद्दोसा लहुं विलिज्जंति। तह तह पयट्टिअव्वं एसा आणा जिणिंदाणं।।' (अध्या.म.प.उप.र.आदौ) इति । * सच्चे सुख का स्वरूप * समाधान :- सकलसांसा. इति। मोक्ष का सुख अनंत और अतिशायित होने के सबब अनुत्तर कहा जाता है। संसार में राजा, देव, देवेन्द्र, अनुत्तरवासी, अहमिन्द्र देव आदि सब उत्कृष्ट सुखी जीवों का सुख इकट्ठा किया जाय और कल्पना की तुला के एक पल्ले में रखा जाय तथा दूसरी और दूसरे पल्ले में मोक्ष का सुख रखा जाय तब भी मोक्ष का सुख, जो कि प्रत्येक मुक्त जीव में रहता है, अनंतगुण हो जाता है। ___ संसार में जो कुछ सुखरूप से प्रतीत होता है वह वास्तव में दुःख से मिश्रित एवं अनित्य तथा दुःखदायी होता है, जब कि मोक्ष का अक्षय सुख लेशमात्र भी दुःख से मिश्रित नहीं है। अतः सांसारिक सुख की अपेक्षा वह अतिशयवाला है। अतः मोक्ष सुख को ही अनुत्तर कहना मुनासिब है।।९९ ।। चारित्रशुद्धि का फल मोक्ष है- यह ९९ वी गाथा में बताया गया है। अब प्रकरणकार प्रस्तुत भाषारहस्य ग्रंथ का उपयोग बताते हैं। गाथार्थ :- अतएव चारित्र की शुद्धि के लिए बुध पुरुष को इस भाषारहस्य ग्रंथ को अच्छी तरह देख कर जिस ढंग से रागद्वेष का विलय हो उस ढंग से गुण में प्रवृत्ति करनी चाहिए।१००। * प्रस्तुत प्रकरण का उपयोग * विवरणार्थ :- मोक्षप्राप्ति के लिए चारित्रशुद्धि आवश्यक है, चूंकि चारित्रविशुद्धि मोक्ष का कारण है। कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। अतः मोक्षार्थी विचक्षण पुरुष चारित्रविशुद्धि के लिए प्रस्तुत भाषारहस्य ग्रंथ का गौर से और खास तोर से अभ्यास करे यह आवश्यक है। तथा अच्छी तरह इस प्रकरण का अवगाहन कर के जिस तरह राग और द्वेष का, जो भवभ्रमण १ मुद्रितप्रतौ 'थप्रयोग(जन)मा' इति पाठः। २ तस्माद् बुधो भाषारहस्यमेतच्चारित्रशुद्धिकृते समीक्ष्य । यथा विलीयेते खलु रागद्वेषौ तथा प्रवर्तेत गुणेषु सम्यक् ।।१००।।

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