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* अप्रीति-लज्जानाश-रोगस्थैर्यबुद्धिजनकवचनानां निषिद्धत्वनिरूपणम् *
२९१ या च व्यवहारतः सत्यापि सती काण-पण्डक-व्याधित-स्तेनादिषु काणादिभाषा अप्रीति-लज्जानाश-स्थिररोगबुद्धि-विराधनादिदोषजननेन कुलपुत्रत्वादिना प्रसिद्धे दासादि भाषा च परप्राणनदेहोत्पादकतयोपघातिनी भवति तामपि न भाषेत। अन्धकारे अप्पणिज्जअन्नवत्थफरिसा आसंसिओ केणवि पुच्छिओ जहा कस्स एतं वत्थं? किं तव उदाहु ममत्ति? तत्थ सब्भावओ अयाणमाणेण वत्तव्वं जहा न याणामित्ति। एवं सावं अणवधारिए अत्थे भणियं । (द.वै.जि.चू.पृ. २४८-२४९)
काण इत्यादि परुषवचनत्वादिना निषेधाक्रान्तेयं भाषा । तदुक्तं बृहत्कल्पसूत्रे - नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीणं वा इमाई छ अवयणाइं वइत्तए। तं जहा अलियवयणे, हीलियवयणे खिसियवयणे, फरुसवयणे, गारत्थियं वयणे, विओसवियं वा पुणो उदीरित्तए। (बृ.क.उ. ६/पृ. १६०१)।
अप्रीतीत्यादि। यथाक्रम काणादिष्वन्वयः कार्यः। प्रयोगस्त्वेवं काणादिशब्दरूपा परुषादिभाषा न वक्तव्या महोपघातकत्वात् अकुशलानुबन्धजनकत्वाद् वा क्रोधादिनिःसृतभाषावत्। तदुक्तं दशवैकालिके तहेव फरुसा भासा गुरुभूओवघाइणी। सच्चावि सा न वत्तव्वा जओ पावस्स आगमो।। तहेव काणं काणत्ति पंडगं पडगत्ति वा। वाहिअं वापि रोगित्ति तेणं चोर त्ति नो वए|| एएणऽन्नेण अटेणं परो जेणुवहम्मइ । आयारभावदोसन्नु न तं भासिज्ज पन्नवं ।। (द.वै.अ.७/गा.११-१२-१३) आचारांगेऽप्युक्तं ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगयाइं रूवाइं पासिज्जा तहावि ताई नो एवं वइज्ज तं जहा-गंडी गंडीत्ति वा कुट्टी कुट्ठीति वा जाव महुमेहुणीति वा हत्थच्छिन्नं हत्थच्छिन्नेत्ति वा, एवं पायच्छिन्नेत्ति वा नक्कछिण्णेइ वा कण्णछिन्नेइ वा उट्ठछिन्नेति वा । जे यावन्ने तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं बूइया कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगारा एयप्पगाराहिं भासाहिं अभिकंखं नो भासिज्जा।। (आ.चा.दि.श्रु.अ. ४/उ.२/सू.
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कुलपुत्रत्वादिनेति। आदिशब्देन ब्राह्मणत्वादिग्रहणम्। तदुक्तं प्राचीनतमचूर्णी विद्धादीण गुरूण सव्वभूताण वा उवघातिणी अहवा गुरूणि जाणि भूताणि महंति तेसिं कुलपुत्त-बंभत्तण भावितं विदेसागतं तहाजातीयकतसंबंधं दासादि वदति जतो से उवघातो भवति गुरुं वा भूतोवघातं जा करेति रायंतेउरादिअभिद्रोहातिणा मारणंतियं सच्चा वि सा ण वत्तव्या किमुत अलिया? इति।
निषिद्ध है। जैसे कि काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना-यह उपघातक भाषा है। इसका कारण यह है कि काने को, जिसको एक ही आँख होती है, काना कहने से उसे अप्रीति होती है, नपुंसक को नपुंसक कहने से वह बेशरम बनता है, रोगी को रोगी कहने से उसे मैं रोगी हूँ, मैं रोगी ही रहूँगा' इत्यादिरूप रोग में स्थिरता की और अपने में सदा के लिए रोगीपना की बुद्धि उत्पन्न होती है तथा चोर को चोर कहने से विराधना दोष होता है अर्थात् चोर साधु भगवंत को मार डाले या राजपुरुषादि चोर को गिरफतार करे इत्यादि दोषों की संभावना होने के सबब तादृश भाषा बोलना निषिद्ध है। तथा किसी विदेशागत व्यक्ति को, जो अपने को कुलपुत्र या ब्राह्मण बतलाता है, दास आदि कहना नामुनासिब है, क्योंकि तादृश वचन प्रयोग से संभव है कि वह स्वमानादि निमित्त से आत्महत्या भी करे। अन्य के प्राण में भी संदेह की उत्पादक होने से तादृश भाषा . साधु के लिए निषिद्ध है।
* संगादिदूषित भाषा अनुज्ञात अनुज्ञात नहीं है * तथा स्त्रियमधि. इति । अब विवरणाकार ८७ वीं गाथा के पश्चार्द्ध का व्याख्यान करते हुए साधु-साध्वी की अपेक्षा से कहते हैं कि स्त्री को - 'हे आर्यिके! = हे दादी! हे नानी! तथा हे प्रार्यिके! = हे परदादी! हे परनानी! इत्यादि भाषासंबोधन करना नहीं चाहिए तथा हे भट्टे! हे स्वामिनि! हे होले! हे गोले! इत्यादिरूप से आमंत्रण नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि सुननेवाले लोगों को ऐसा महसूस होता है कि दीक्षा लेने के बाद भी इस साधु की ममता छूटी नहीं। अतएव 'हे दादी!' इत्यादिरूप से पुकारता है।' अगस्त्यसिंहसूरीशकृत दशवैकालिकचूर्णि के अनुसार भट्टे' शब्द लाट देश (मध्य और दक्षिण गुजरात) में पुत्ररहित स्त्री के लिए प्रयुक्त होता था। स्वामिनीशब्द प्रायः सब देश में सन्मानसूचक संबोधनशब्द है। इन शब्दों के प्रयोग से श्रोता को साधु और