Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 349
________________ ३१८ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ५. गा. ९४ ० सुकृतादिपदयोजनाप्रदर्शनम् 'सावज्जे सुकडाई ण वए, सुकए वए अ तं वयणं । अणवज्जं चिय भासे सम्मं नाऊण विहिभेयं । । ९४ ।। सावद्ये = आरम्भमये कार्ये, सुकृतादिवचनं न वदेत् । तथाहि सुष्ठु कृतमेतत् सभादि, सुष्ठु पक्वमेतत् सहस्रपाकादि, सुष्ठुच्छिन्नमेतद्वनादि, सुष्ठु हृतं क्षुद्रस्य वित्तं, सुष्ठु मृतः प्रत्यनीकः, सुष्ठु निष्ठितं वित्ताभिमामिनो वित्तं, सुष्ठु सुन्दरा कन्या इत्यादि द्रुतमभिहितस्य वाच्यार्थस्याऽपरिज्ञानादिति । न च ज्ञानमृतेऽप्यधिकरणप्रवृत्तिः स्यात्; कृतित्वावच्छिन्नतायाः प्रमाणनिश्चितत्वेन तदभावे तद्व्यतिरेकस्य न्याय्यत्वात्, अन्यथा कार्यकारणभावभङ्गप्रसङ्गादित्यलं विस्तरेण । । ९३ ।। सुकृतादीति । तदुक्तं 'सुकडित्ति सुपक्किंत्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुनिट्ठिए सुलट्ठित्ति सावज्जं वज्जए मुणी । (द. वै. ७/ ४१ तथा उत्तरा. १/३६) सुष्ठु कृतमेतत् सभादीति । अगस्त्यसिंहसूरिमते सुकडेत्ति सर्वक्रियापसंसणं (द. वै. अ. चू. पृ. १७५) इति वचनात् सर्वसावद्यक्रियाविषयः सुकृतशब्द इति ध्येयम् । उत्तराध्ययनवृत्तिकारेण तु सुकृतादियोजना प्रथमं भोजनविषये कृता पश्चाच्चान्यविषयाऽपि, तदुक्तं श्रीनेमिचंद्रसूरिणा सुकृतं = सुष्ठु निर्वर्त्तितमन्नादि सुपक्वंघृतपूर्णादिः इतिः उभयत्रोपदर्शने, सुच्छिन्नं- शाकपत्रादि सुहृतं -सूपविलेपिकादिनाऽमत्रकादेर्घृतादि सुभृतंघृताद्येव सक्तुसूपादौ सुनिष्ठितं - सुष्ठुनिष्ठां - रसप्रकर्षात्मिकां गतं सुलष्टं शोभनं मोदकादि अखण्डोज्ज्वलस्वादुसिक्थत्वादिना इत्येवं प्रकारमन्यदपि सावद्यं वर्जयेद् मुनिः । यद्वा सुष्ठु कृतं यदनेनाऽरातेः प्रतिकृतं सुपक्वं पूर्ववत् सुच्छिन्नोऽयं न्यग्रोधद्रुमादिः सुहृतं कदर्यस्य धनं चौरादिभिः सुमृतोऽयं प्रत्यनीकधिग्वर्णादिः सुनिष्ठितोऽयं प्रसादादिः सुलष्टोऽयं करितुरगादिरिति सामान्येनैव सावद्यं वचो वर्जयेद् मुनिः (उत. १/२३ ने. वृ.) आचाराङ्गेऽपि पृथक् निर्वचनं कृतं । तथाहि से भिक्खू वा भिक्खुणी वा जहा वेगयाइं पासिज्जा तं जहा वप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहावि ताइं नो एवं वइज्जा । तं जहा सुकडेइ वा सुट्टुकडेइ वा साहुकडेइ वा कल्लाणेउवा करणिज्जेइ वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा से भिक्खू वा जाए एवं वइज्जा । तं जहा आरंभकडेइ, वा, सावज्जकडेइ वा, पयत्तकडेइ वा, पासाइयं पासाइय वा दरिसणीयं दरिसणीयंति वा अभिरूवं अभिरूवं ति वा, पडिरूवं पडिरूवंति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा ।। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडियं पेहाए तहावि तं णो एवं वदेज्जा । तं जहा सुक्कडेति जाव णो भासेज्जा से भिक्खू गृहस्थ न जानता हो और मुनिराज जानते हो ऐसी संस्कृत, कन्नड, तामिल आदि भाषा में मुनिराज से मुनिराज प्रत्युत्तर प्रदान करे, जिससे न कोई दोष हो और न तो प्रयोजन की असिद्धि हो । अतः शास्त्र में जो कुछ बताया गया है वह ठीक ही है। हमारा कार्य है शास्त्रपरिकर्मित बुद्धि से गुरु द्वारा शास्त्रतात्पर्य का अन्वेषण करना । । ९३ । । गाथार्थ :- सावद्य कार्य में सुकृत आदि शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा निरवद्य कार्य में सुकृत आदि शब्द का प्रयोग करना चाहिए। सम्यक् विधिविशेष जान कर प्रयोजन उपस्थित होने पर निरवद्य भाषा को ही बोलना चाहिए ।९४ । * सुकृत आदि वचनविधि विवरणार्थ :- आरंभमय-पापमय कार्यरूप विषय में सुकृत आदि वचन को नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि तब आरंभ की अनुमति आदि दोष की जिम्मेदारी वक्ता मुनि के सिर पर आती है। देखिए, यह सभा अच्छी बनायी है, यह सहस्रपाक तैल अच्छी तरह पकाया है, यह वनादि अच्छी तरह काटा गया है, क्षुद्र जीव का धन अच्छी तरह लुटा गया, दुश्मन अच्छी तरह मारा गया, धन के अभिमानी का धन अच्छी तरह खतम (समाप्त) हो गया, यह हसीना खुबसूरत है - इत्यादि भाषा बोलना मुनि के लिए निषिद्ध है, क्योंकि इन वाक्यों से सभा बनाना, तैल को पकाना, वन को काटना इत्यादि में अनुमति आ जाती है । त्रिविध-त्रिविध सावद्य व्यापार के त्यागी मुनिराज के व्रत को सावद्य अनुमति दूषित करती है। तथा दुश्मन आदि के संबधी को तादृश वचन सुनने के सबब साधु के प्रति अप्रीति, द्वेष आदि भी होता है । अतः तादृश प्रयोग मुनि के लिए निषिद्ध है। १ सावद्ये सुकृतादि न वदेत् सुकृते वदेच्च तद्वचनम् । अनवद्यमेव भाषेत सम्यग्ज्ञात्वा विधिभेदम् । । ९४ ।।

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