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३१६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९३ ०प्रवचनापभ्राजना-प्रद्वेष-बोधिदुर्लभतादिदोषापादकवचनानां परिहार्यत्वम् ० च प्रयोजनाऽसिद्धेः, 'न वेहि अहं' इत्युत्तरप्रदाने च प्रत्यक्षमृषावादित्वेन प्रवचनोड्डाह-तत्पद्वेषादिदोषोपनिपातः तथापि 'एतादृशस्थले दोषसमुच्चयः सूचितः।
नाऽपि तृतीयः समग्रोदग्रप्रत्यग्रधीमतां सम्मतः धारालकरालप्रवचनोड्डाहादिक्रकचप्रचारसम्भृतत्वादित्याशयेनाऽऽह 'न वेयी'ति। प्रत्यक्षमृषावादित्वेनेति। इदानीं चैवोत्तीर्णस्तथापि भणति 'न वेमी'ति 'प्रत्यक्षमृषाभाषी अयं' इति गृहास्थादिबुद्धिजनकेन प्रत्यक्षमृषावादित्वेन । तत्पद्वेषादिदोष इति। गृहस्थस्य साधुप्रद्वेषः आदिशब्देन बोधिदुर्लभताज्ञाभङ्गविराधनादेः ग्रहणम्। न चैतद् युक्तम्, ततोऽपि महादोषत्वात्। तदुक्तमुपमितिभवप्रपञ्चायां कथायां 'कुठारच्छेद्यतां कुर्यान्नखच्छेद्यं न पण्डितः।। (उ.भ.) इति यद्यपिकल्पाशयः।
समाधत्ते-तथापीति। अत्र द्वितीय-तृतीययोरनभ्युपगमादेव न किञ्चित् नश्छिन्नम् प्रथमे च साक्षादप्रवर्तकस्य शुद्धाशयप्रयुक्तस्य कारणिकस्य वचनस्य निषेधाविषयत्वं पूर्वमेव प्रतिपादितम। ततो न कश्चिद्दोषस्तथाऽपि समाधानान्तरं चूर्णिमतेन प्रथमे पक्षे प्रदर्शयति- 'एतादृशे' ति । यत्रानुक्तादौ प्रयोजनासिद्ध्यादयो दोषाः तस्मिन् स्थले । तो तादृश शुद्ध वचन को सुन कर भी आवश्यकता के अनुसार नदीतरण आदि सावद्य प्रवृत्ति में प्रवृत्त और निवृत्त हो सकते हैं। यहाँ महात्मा का प्रदर्शित शुद्ध वचन निमित्त बनता है। जिन दोष से बचने के उद्देश से मुनिराज शुद्ध वचन का प्रयोग करते हैं उन दोषों से अपने को बचाना तो मुश्किल ही लगता है। अन्य मुनिराज को मार्ग बताने के उद्देश से प्रवृत्त होने पर भी सावध प्रवृत्ति में प्रवर्तन आदि दोष तदवस्थ ही रहते हैं।
शंका :- यदि शुद्ध आशय से प्रवृत्त होने पर भी प्रवर्तनादि दोष की संभावना बनी रहती ही है तब यही मुनासिब है कि नदी के बारे में जब प्रश्न किया जाये तब मुनिराज मौन का ही आश्रय करे, क्योंकि तब सावद्य प्रवर्तन आदि दोष से दूषित होने की कोई संभावना मुनिराज के लिए न रहेगी। सुना भी जाता है 'मौनं सर्वार्थसाधनम्' । प्रवर्तन आदि दोष का मूल है कुछ न कुछ बोलना। जब भाषण ही न होगा तब आगे दोष की परंपरा कैसे बनेगी? न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसूरी।
समाधान :- तदागत. । जनाब! आपकी बात ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि नदी की वर्तमान परिस्थिति के संबंध में बेखबर दूसरे मुनिराज प्रस्तुत मुनि से, जो कि नदी से अभी आए हुए हैं, जब प्रश्न करते हैं तब उसका आशय यही है कि - 'इस महात्मा से नदीसंबंधी परिस्थिति मालुम हो जाएगी, क्योंकि नदी से ही वह आ रहा है'। मगर प्रस्तुत मुनिराज नदी का हाल मालुम होने पर भी महात्मा की और से किए गए प्रश्न की उपेक्षा कर के मौन का आश्रय करेगा तब तो दूसरे मुनिराज का प्रयोजन ही सिद्ध न हो सकेगा; क्योंकि कुछ भी जवाब न मिलने पर, 'नदी पार कर के अभी आवश्यक काम के लिए जाना चाहिए या नहीं? जाने में नदीमार्ग अभी अनुकूल है या नहीं? 'इत्यादि का ज्ञान, जो प्रश्नकर्ता मुनिराज का प्रयोजन है, पृच्छक मुनिराज को कैसे होगा? अर्थात् वह प्रयोजन असिद्ध ही रह जाएगा! तथा महात्मा को जवाब न देने के सबब अविनय आदि दोष से प्रस्तुत मुनिराज भी कैसे अपने को बचाएगा? इसलिए बिलकुल जवाब न देना तो नामुनासिब ही है।
शंका :- यदि गृहस्थ साधु से प्रश्न करे तब तो साधु के लिए मौन रहना उचित नहीं है किन्तु यही कहना उचित है की - 'मैं कुछ जानता नहीं हूँ' ऐसा जवाब देने पर प्रवर्त्तन आदि दोष की संभावना ही नहीं है, क्योंकि ऐसा कहने से गृहस्थ को कुछ भी मालुम नहीं होता हैं।
समाधान :- न वेभि इति। आप तो अक्ल के दुश्मन हो - ऐसा प्रतीत होता है, क्योंकि गृहस्थ यह तो जानता ही है कि ये मुनिराज नदी से आ रहे हैं। नदी पार कर के आने पर भी नदी में कितना पानी है-यह मालुम नहीं हैं यह तो प्रत्यक्ष मृषावाद हुआ। सफेद झूठ बोलने से साधु के प्रति गृहस्थ को द्वेष होता है। 'देखो, ये जैन मुनिराज झूठ बोल रहे हैं, जिन्होंने जीवनपर्यन्त का सत्यव्रत लिया है । इत्यादि बोल कर गृहस्थ जिनशासन की अवहीलना करे-यह भी संभव है। तथा झगडा-बखेडा और गाली की वर्षा होने का भी संभव रहता है। अधिकरण दोष को छोडते छोडते शासन अपभ्राजना आदि बड़े बड़े दोष आने लगेगे। बकरे को निकालने पर ऊँट का प्रवेश हो गया!
उत्तरपक्ष :- तथापि इति । आपकी यह बात ठीक है कि कुछ न बोलने पर प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती है और 'मैं नहीं