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३२६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९५
० असाधुत्वपोषकवचनानामनुपादेयत्वम् ० तथाऽसाधुलोकं = आजीविकादिकं लोकैः साधुशब्देनाऽभिलाप्यमानं, 'साधुरयमिति न वदेत्, मृषावादप्रसङ्गात्। न चतद्वचनस्य रूपसत्याद्यन्तर्गततया न मृषात्वमिति शङ्कनीयम्, गुणोपबृंहणप्रवणानामीदृशानामन्वर्थशब्दानामविषये मोहादेव प्रयुज्यमातदनुकूलाकाङ्क्षोत्थापकत्वं वा । तेन तस्याऽऽदरणीयत्वस्येव सिद्धेः । तदुक्तं महावादिनैव सम्मतितर्के 'पुरिसज्जायं तु पडुच्च झाणओ पण्णविज्ज अन्नयरं। परिकम्मणानिमित्तं राहेही सो विसेसंपि।। (सं.त.का. १/गा. ५४) इति प्रमाणवाक्यमपि ह्यनेकान्तरुचिशालिनं पुरुषविशेषमधिकृत्यैव प्रयुज्यते। तदनयोर्द्वयोरपि कारणिकत्वे प्राप्ते स्वस्वकाले औत्सर्गिकत्वमेव न्यायसिद्धं, विप्रतिषिद्धकारणविधिस्थले तथाव्युत्पत्तेरिति विभावनीयं परिणतप्रवचनैः । __ असंयतानामिति। तदुक्तं 'तहेवासंजयं धीरो आस एहि करेहि वा। सयं चिट्ठ वयाहित्ति नेवं भासिज्ज पन्नवं ।। (द.वै. ७/४७) अयतनेति। तदुक्तं चूर्णी 'असंजतो सव्वतो दोसमावहति चिटुंतो तत्तायगोलो। जहा तत्तायगोलो जओ खिवइ ततो डहइ तहा असंजओ वि सुयमाणोऽवि णो जीवाणं अणुवरोधकारओ भवति, किं पुणा जागरमाणोत्ति' (द.वै.जि.चू.पृ. २६१) ___ असाधुलोकमिति। तदुक्तं 'बहवे इमे असाहु लोए वुच्चंति साहुणो। ण लवे असाहु साहुत्ति, साहुं साहुत्ति आलवे ।। (द.वै. ७/४८)। आजीविकादिकमिति। आदिपदात् निह्नवबोटिकपाखण्ड्यादिग्रहः । असाधुत्वं चैतेषु निर्वाणसाधकयोगापेक्षया। मृषावादप्रसङ्गात् = भावसाधुत्वशून्ये साधुत्वप्रकारकशाब्दबोधजनकत्वेनासत्यत्वापत्तेरित्यर्थः ।
ननु तद्रूपवति प्रवर्त्तमानत्वेन भावार्थबाधप्रतिसन्धानसध्रीचीन-तद्रूपवद्गृहीतोपचारकपदघटितभाषात्वस्य रूपसत्यलक्षणस्याक्षतत्वाद्रूपसत्यमेवेद्रं वचनं न तु मृषेति शङ्कां निरसितुमुपक्रमते-नचेति । प्रयोगा एवं- आजीविकादिविषयकं साधुवचनं न मृषा रूपसत्यत्वात् द्रव्यलिंगिविषयकसाधुवचनवत् तथा आजीविकादिविषयकसाधुवचनं रूपसत्यं तल्लक्षणाक्रान्तत्वात् तद्वदेवेति। रूपसत्याद्यन्तर्गततयेति। आदिशब्देन व्यवहारसत्याऽऽदिग्रहः ।
तन्निरस्यति- गुणेति। मोक्षमार्गसाधकत्वप्रतिपादनपरत्वेन गुणप्रशंसनप्रवणानां साध्वादिशब्दानां अविषये=योगार्थविनिर्मुक्ते वस्तुतत्त्वावधारणविकलचित्तवृत्तिलक्षणान्मोहादेव प्रयुज्यमानत्वेन मृषात्वाऽनपायादिति प्रथमो हेतुः। प्रयोगा एवम् आजीविकादिविषयकं साधुवचनं मृषा मोहप्रयुक्तत्वात् सम्प्रतिपन्नवत् । तदुक्तं वाचकमुख्येन -'रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्' । ( )। तदपि कुतः? उच्यते विप्रतिपन्नवचनं मोहप्रयुक्तं योगार्थशून्ये योगार्थप्रतिपादनपरत्वात्; गृहस्थे साधुशब्दवत्। से वास्तव में साधुत्व शून्य है, 'यह साधु है' ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वैसा कथन करने से मृषावाद होने का दोष प्राप्त होता है। आजीवक मत के संन्यासी आदि का लोक तो साधुशब्द व्यवहार करता है। साधुशब्द से उन्हें पुकारता भी है। मगर भावसाधुत्व उसमें नहीं होता है। जो विशिष्टरूप से मोक्षमार्ग के साधक होते हैं वे भावसाधु होते हैं। आजीवक आदि तो संसार के साधक होने से साधु नहीं है। अतः असाधु में साधुशब्द का प्रयोग करना मृषावाद है।
शंका :- न चैत. इति। जैसे द्रव्यलिंगी (पासत्था, शिथिलाचारी) में प्रत्युक्त 'साधु' शब्द मृषावाद नहीं है मगर रूपसत्य भाषा है, क्योंकि उसमें भावसाधुत्वशून्यता होते हुए भी भावसाधु का लिङ्ग (रजोहरण आदि) विद्यमान होने से उसमें प्रयुक्त साधुशब्द में रूपसत्य भाषा का लक्षण रहता है। ठीक वैसे ही आजीवक आदि में भावसाधुत्व नहीं होते हुए भी साधु का लिंग = वेश तो विद्यमान ही है। हाँ, रजोहरणादि लिंग नहीं होते हैं किन्तु उसके धर्म में बताया हुआ वेश तो अवश्य रहता है। अतः उसमें प्रवृत्त साधु आदि शब्द को रूपसत्य कहना ही उचित है, असत्य नहीं। 'रूपसत्याद्यन्त' यहाँ जो आदि पद है उससे व्यवहारसत्य आदि के ग्रहण की सूचना होती है।
__* दुर्गुणी में गुणोपबृंहक शब्द का प्रयोग निषिद्ध है * समाधान :- गुणो. इति। आजीवक आदि में प्रयुक्त साधुशब्द असत्य है- ऐसा हमने जो कहा है उसे पत्थर की लकीर समझ लो। इसका कारण यह है कि साधुशब्द मोक्षमार्गसाधकत्वरूप गुण का प्रतिपादक है जैसे धनपति शब्द धनस्वामित्व का । अतएव