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* आपवादिकराजस्तुत्यादिनिवेदनम् *
३३३ कारणे च राजस्तुत्यादौ देवादिपदैरपि राजाद्यालापनं न विरुद्ध्यत इति ध्येयम् ।।९६ || तदेवमुक्तः कियांश्चिदनुमतभाषाभाषणविधिः।
अथ (ग्रन्थाग्रम् - १००० श्लोक) कियद्विस्तरतोऽनुशासितुं शक्यमिति सामान्यतो रहस्योपदेशमाह 'दोसे गुणे य णाऊणं जत्तीए आगमेण य । गुणा जह न हायंति, वत्तव्वं साहुणा तहा ।।९७।। यथा गुणाः = चारित्रपरिणामवृद्धिहेतवो न हीयन्ते = अपकर्षं नाशं वा न गच्छन्ति, तथा साधुना वक्तव्यम् । किं कृत्वा? आगमेन
अ। रिद्धिमंतं नरं दिस्स रिद्धिमंतं ति आलवे ।। (द.वै.७/५३-५४) इति।
अपवादमाह-कारण इति। न विरुद्ध्यते इति। आपवादिकत्वादिति हेतोः। देव इति उपलक्षणम। तेन सुशब्दादिनिषेधः कृतः। तदुक्तं आचारांगे से भिक्खू वा भिक्खुणी वा तहप्पगाराई सद्दाइं सुणिज्जा तहावि एयाएं नो एवं वएज्जा। तं जहा-सुसद्देत्ति वा दुसद्देत्ति वा एयप्पगारं भासं सावज्जं नो भासिज्जा (आचा.२/४/२-१३९) इति ।।९६ ।।
तदेवमुक्त इति। सप्ताशीतिगाथातः प्रारभ्य षण्णवतिगाथापर्यन्तं श्रीदशवैकालिकवाक्यशुद्ध्यध्ययनानुसारितया प्रतिपादितः। अनुमतभाषाभाषणविधिरिति। चारित्रभावभाषानुगतवाग्विधिः। शक्यमिति। भाषागोचरस्याऽपरिमितत्वात्, आयुषः परिमितत्वात्, वाचः क्रमवर्तित्वाच्च अतिविस्तरतः तादृग्भाषणविधिप्रतिपादनमशक्यमिति भावः | रहस्योपदेशमिति। भाषागोचरमर्मोपदेशम।
* राजा में देव का प्रयोग कारण उपस्थित होने पर अनुज्ञात है * कारणे. इति । यहाँ देवशब्द का राजा के विषय में प्रयोग करना निषिद्ध किया गया है। मगर जब राजा जिनशासन का, जैन साधु का द्वेषी हो या शासन के उपर आई हुई आफत को दूर करने के लिए राजा की स्तुति आदि करना हो तब उस स्तुति में देव आदि शब्द से भी राजा का संबोधन करने में कोई दोष नहीं है। इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है। यह आपवादिक मार्ग है।।९।।
इस तरह ८७ वी गाथा से लेकर ९६ वीं गाथा तक भाषाविशुद्धि अध्ययन के अनुसार साधु के लिए बोलने को अनुज्ञात भाषा किस ढंग से बोलना और किस ढंग से नहीं बोलना? यह संक्षेप से बताया गया है। विस्तार से कितना बताया जा सकता है? सरस्वती लिखने को तैयार हो जाय और सब समुंदर की श्याही बना कर लिखा जाय तब भी उसका अंत नहीं है। अतः सामान्यतः भाषाविषयक रहस्यार्थ का उपदेश प्रकरणकार श्रीमद्जी ९७ वी गाथा से बताते हैं।
गाथार्थ :- आगम और युक्ति से गुण और दोषों को जान कर जिस तरह गुणों का विनिपात न हो वैसा साधु को बोलना चाहिए।।९७।।
* रहस्योपदेश * विवरणार्थ :- यहाँ चारित्रभावभाषा की बात चल रही है। अतः गुण का अर्थ होगा चारित्र के परिणाम की वृद्धि का हेतु । शास्त्र से और तर्क (युक्ति) से "मैं जो कुछ बोलना चाहता हूँ उससे कोई दोष तो नहीं आता है न? अपने प्रयोजन की तो सिद्धि होती है न? जिनाज्ञा की विराधना तो नहीं होती है न?" इस तरह गुण-दोष की विचारणा कर के प्रयोजन के अनुसार साधु को ऐसा बोलना चाहिए कि जिसके सबब अपने चारित्रपरिणाम की वृद्धि के निमित्तभूत विशेषगुण न तो कम हो और न तो नष्ट हो। इस तरह खूब सोच-समझकर बोलना चाहिए।
शंका :- आपने बहुत अच्छी बात की है। मगर मुनिराज भी छद्मस्थ है। अतः संभव है कि अपने क्षयोपशम के अनुसार शास्त्र और तर्करूप कसोटीपत्थर में भाषा की परीक्षा करने पर भी वस्तुतः शास्त्र में जिसे कर्तव्य बताया है उसका पालन न हो और
१ दोषान् गुणांश्च ज्ञात्वा युक्त्याऽऽगमेन च । गुणा यथा न हीयन्ते वक्तव्यं साधुना तथा ।।९७।।