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* 'शिवमस्तु' वचनमीमांसा *
३३१ ___ कथं तर्हि 'शिवमस्तु सर्वजगतः' इति? शिवेऽपि चौर्याद्यन्तरायदोषादिति चेत्? सदाशयवशादेतादृशप्रार्थनाया असत्यामृषाङ्गतया श्रुतभावभाषायामधिकारेऽपि प्रकृतानुपयोगादिति दिग।।९५।। किञ्च
लब्धावसरः परः प्रत्यवतिष्ठते-कथमिति। क्षेमे इव शिवेऽपि चौरादीनां चौर्याद्यन्तरायदोषस्याव्याहतप्रसरतया 'सुभिक्षं भवतु' इतिवत् 'शिवमस्तु सर्वजगत' इति कथनमपि अकर्तव्यतापन्नं यद्वा तद्वत् 'सुभिक्षं भवतु' इत्यपि भाषणविधया कर्तव्यं स्यात् अन्यथा अर्धजरतीयप्रसङ्गादिति शङ्काकर्तुराशयः ।
समाधत्ते सदाशयेति। यद्यपि श्रुतपरावर्त्तनादि कुर्वतः सम्यगुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टेः सदाशयप्रयुक्तं 'शिवमस्तु' इत्यादि प्रार्थनावचनं असत्यामृषा श्रुतभावभाषैव न तु मृषा अंतरायाधुद्देशाभावात्। न च तद्भावेनाऽप्रयोगेऽपि तदुपबृंहकतया सा विराधन्येव 'संखडी कार्या' इत्यादिभाषावदिति शङ्कनीयम् तत्र श्रोतुः साक्षात् संखड्यां कर्तव्यत्वबुद्ध्याधानेन मिथ्यात्वोपबृंहकत्वात् तस्या निषिद्धत्वं प्रकृते च श्रोतुः तदुपबृंहणदोषाभावेनाऽसत्यामृषात्वालकृतश्रुतभावभाषात्वस्याऽनिरुद्धप्रसरतया दोषाभावात् तथापि प्रकृते चारित्रभावभाषाविषयकनयविशेषानुसारिशिक्षानुगामिभाषणेऽनुपयोगानन्नात्र साऽधिकृता । यद्यपि 'शिवमस्तु सर्वजगत' इति श्लोकः न केवलं बृहच्छान्तौ वर्तते किन्तु हर्षकृते (ना. ५/४०) नागानन्दे, भवभूतिकृते मालतीमाधवे (मा. मा. १०/२५) चाऽपि वर्तते तथापि सम्यक्श्रुतेऽपि तदुपादानाच्छुतभावभाषायामधिकारस्तस्योक्तः। एतेन ऊँ क्षेमं भवतु सुभिक्षं शस्यं निष्पद्यतां जयतु धर्मः | शाम्यन्तु सर्वरोगा, ये केचिदुपद्रवा लोके।। () इत्यपि व्याख्यातमिति सूक्ष्ममीक्षणीयम् ।।९५।। जीवों को पीडा भी होगी। वह इस तरह है। देखिए, पवन जब जोर से आता है तब वृक्ष आदि टूट जाते हैं, वृष्टि होने पर अप्काय की तो विराधना होती ही है, मगर चिटियाँ, मत्कोटक आदि अनेक जीवों का संहार होता है। ठंडी बहुत पड़े तब बहुत मनुष्य और प्राणी मर जाते हैं- यह तो सर्व जन विदित ही है। इस तरह गर्मी पड़ने पर भी लोग दुःखी होते हैं। अतः तादृश वचन बोलना मुनि के लिए निषिद्ध है। जब ठंड बहुत हो तब 'गर्मी पडो' और जब गर्मी बहुत हो तब 'ठंड पडो' इत्यादि वाक्य का प्रयोग मुनि को नहीं करना चाहिए। बल्कि ऐसे स्थान में 'मौनं सर्वार्थसाधनं' न्याय से मौन ही रहना चाहिए। ___ शंका :- कथं इति । सुभिक्ष होने पर अनाज़ आदि के संग्राहक व्यापारी को व्यापार में अंतराय होता है इस अभिप्राय से जैसे मुनि के लिए 'सुभिक्ष हो' ऐसा बोलना निषिद्ध है ठीक वैसे 'शिवमस्तु सर्वजगतः' इत्यादि बोलना भी मुनिराज के लिए निषिद्धि हो जायेगा, क्योंकि 'सारे जहाँ में उपद्रव आदि न हो' ऐसी मुनिराज की भावना सफल हो तो भी चोर आदि को अपनी चोरी आदि में तो अंतराय ही होगा। इसका कारण यह है कि चोरी, लुट, खुन इत्यादि भी उपद्रव ही है, जो चोर आदि की आजीविका के साधन है। वे बंध हो जाने पर चोर आदि को जरूर अंतराय होगा। तब उसे कौन खाना देगा? अतः मुनिराज बृहत् शांति में 'शिवमस्तु सर्वजगतः इत्यादि जो कथन करते हैं वह निषिद्ध हो जाएगा।
* "शिवमस्तु सर्वजगतः' असत्यामृषा श्रुतभावभाषा है। * समाधान :- सदा. इति। आप शास्त्र के तात्पर्य को ढूंढने का उद्योग नहीं करते हैं। अतएव ऐसी उल्झन में फंसे हुए हैं। 'शिवमस्तु सर्वजगतः' यह प्रार्थना तो श्रुतनिबद्ध है और सदाशृत से प्रयुक्त है। अतएव वह असत्यामृषा श्रुतभावभाषा है। उस भाषा को सावध मानना मुनासिब नहीं है। मगर प्रस्तुत में चारित्रभावभाषा का अधिकार है। उसमें भी किस प्रकार के वचन को बोलना और किस प्रकार के वचन को, जो व्यवहारतः सत्यरूप से भी प्रतीत होता है, नहीं बोलना इस विषय में मुनिराज को शिक्षा दी जा रही है। मुनिराज दीक्षा के बाद सबसे प्रथम दशवैकालिक आगम को, जो दुप्पसह सूरिजी पर्यन्त रहनेवाला है, पढते हैं। नूतन मुनिराज को भाषाविषयक शिक्षा देने के लिए वाक्यशुद्धि नाम का सातवाँ अध्ययन बनाया गया है, जिसमें चरित्र के पोषक एवं वर्धक कैसे वाक्यों को बोलना? और कैसे वाक्य को नहीं बोलना? इस विषय का विष्लेषण किया गया है। इसमें 'शिवमस्तु' इत्यादि प्रार्थना वचन का कोई उपयोग नहीं है। अतः यहाँ उसकी विस्तृत चर्चा नहीं की है। इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है इसकी सूचना देने के लिए "दिग्' शब्द का प्रयोग किया गया हैं।।९५।।
गाथार्थ :- मेघ, आकाश और मनुष्य को देव कहना मुनि के लिए निषिद्ध है। (प्रयोजन उपस्थित होने पर) उन्नत, अंतरिक्ष