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* निक्षेपानुशासनविचार: * भावात्, अन्यथा निक्षेपनैष्फल्यादिति दिग्।
तथा सदोषाशंसनं न वदेत् । तथाहि-देवासुरनृतिरश्चां विग्रहेऽमुकस्य जयो भवतु मा वाऽमुकस्य भवतु इति नालपेद्, अधिकरणव्यवहृतस्य तस्याऽसच्चेष्टादिदर्शने प्रवचनविराधना६, कण्ठतालुशोषादिकायक्लेशतो देवताभ्यो वा आत्मविराधना७ इत्यादयो बहवो दोषाः तेन तत्र तत्प्रयोगो निषिद्धः। दोषरहितत्वाभावान्न तत्र साधुस्थापनाऽपि सम्भवति स्थापनाया दोषरहिते तज्जातीयभिन्ने प्रवर्त्तमानत्वस्य पूर्वमुक्तत्वात् नेह पुनः प्रतन्यते। प्रतिमायामर्हदादिपदप्रयोगे न कश्चिदसंयतोपबृंहणादिदोषः नाऽपि प्रतिमायाः तज्जातीयत्वम् । अतः प्रतिमायामर्हत्स्थापना युक्तैव । अतः एव तत्राहदादिपदस्य स्थापनासत्यत्वमनिराकार्यम । एतेन प्रतिमायामर्हदादिपदगर्भितस्तुतिकरणस्य न केवलं निर्दष्टत्वं किन्तु महानिर्जराहेतुत्वमपीति व्यज्यते।
विपक्षे बाधमाह-अन्यथेति। तज्जातीयभिन्ने निर्दोषे तत्पदस्य स्थापनासत्यत्वाऽनुपगमे। निक्षेपनैष्फल्यादिति। स्थापनानिक्षेपानुशासनस्य निष्फलत्वप्रसङ्गादित्यर्थः । अयं भावः स्थापनायां शक्तिरभ्युपगम्यते न वा? इति विकल्पयुगली मञ्जुलमरालयुगलीव विमलीभावमाबिभ्रती प्रतीतिपथमवतेतीर्यते। तत्र शक्तिस्वीकारे शक्तस्य शक्यार्थे प्रवर्त्तनात्सत्यत्वमेव स्यात् । द्वितीयविकल्पस्तु नानवद्यः, स्थापनायां शब्दशक्तिप्रदर्शकप्रागुक्तनिक्षेपानुशासनस्य जागरूकत्वात्। तत्र तदनुपगमे तत्र शक्तिप्रतिपादकनिक्षेपानुशासनस्य निष्फलत्वं स्यात्। न चैतदिष्टम्, त्वदुपगतभावनिक्षेपेऽपि तथात्वापत्तेः अन्यथाऽर्धवैशसप्रसगात्। तस्मात प्रतिमायामहदादिपदस्य स्थापनासत्यत्वमवश्यमभ्युपेयमिति भावः । प्रतिमाशतक-प्रतिमास्थापनन्यायादौ विस्तरेणोक्तत्वादत्र दिगित्युक्तम् । विग्रह इति। वुग्गहणो णाम वुग्गहोत्ति वा विवादोत्ति वा कलहोत्ति वा एगट्ठा इति चूर्णिकार: । अधिकरण
शंका :- जिनप्रतिमा में प्रयुक्त अरिहंत आदि शब्द को मृषा ही माना जाय तो क्या दोष है? चूंकि प्रतिमा में तात्त्विक अरिहंततत्त्व तो है ही कहाँ? तब तो भावार्थशून्य में प्रवृत्त होने से इस भाषा को मृषा ही कहना मुनासिब है।
समाधान :- अन्यथा. इति । साँप निकल गया, अब लकीर पीटने से क्या? निक्षेपअनुशासन से स्थापना में शक्ति विद्यमान होती है यह तो पूर्व में सिद्ध हो चूका है। आपके मान्य जीवाभिगम, राजप्रश्नीय आदि आगमों के अनुसार भी प्रतिमा = स्थापना में शब्द की शक्ति सिद्ध होती ही है। तब वृथा सावध वचन बोल कर अपने मुहँ को ज्यादा कलंकित क्यों कर रहे हैं? यदि स्थापना में शक्ति का स्वीकार न किया जाय और जिनप्रतिमा में प्रयुक्त जिनशब्द को स्थापना सत्य न माना जाय तथा तीर्थंकर के समान भावआचार्य के पवित्र हस्तकमल से शास्त्रोक्त विधिपूर्वक प्राण-प्रतिष्ठित प्रभुप्रतिमा के सामने अरिहंत, भगवंत आदि शब्दों से गर्भित स्तुति और स्तवना को महानिर्जरा का कारण न माना जाय तब तो अनुयोगद्वार आदि में प्रदर्शित निक्षेपअनुशासन निष्फल होने की अनिष्टापत्ति आयेगी। इसका इष्टापत्तिरूप में स्वीकार करने पर आगम की आशातना, अनंतसंसारित्व आदि भयावह दोष आपका सत्यानाश कर देंगे। इस संबंध में बहुत कुछ विचार आगे हो सकता है जिसका विस्तार विवरणकार ने प्रतिमाशतकप्रतिमास्थापनन्याय आदि ग्रंथों में किया है। इसकी सूचना देने के लिए विवरणकार ने 'दिग' शब्द का यहाँ प्रयोग किया है।
विवरणकार श्री महोपाध्यायजी महाराज ने अपने काल में चारों और फैले हुए आगमनिह्नव प्रतिमालोपकों की, जो अनेक बार प्रेम से समझाने पर भी अपने कदाग्रह को छोडते नहीं थे, ओर करुणा से प्रयुक्त प्रशस्त कषाय को 'आः पाप!' शब्द से व्यक्त किया
है।
* सदोष आशंसावचन निषिद्ध * तथा सदोषा. इति । ९५ वी गाथा के चतुर्थ पाद का विवरण करते हुए विवरणकार कहते हैं कि दोषयुक्त आशंसावचन बोलना साधु के लिए निषिद्ध है। जैसे देव और असुर की या मानव में राजा-राजा की, पशु में मेंढ़ आदि की लडाई होने पर 'अमुक का जय हो अथवा अमुक जय मत हो, पराजय हो' इत्यादि नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि वैसा बोलने से सावध युद्ध की अनुमोदना हो जाती है, 'देव का जय हो' ऐसा बोलने पर विपक्ष असुर के स्वामी को साधु पर द्वेष हो जाता है। संभव है कि वह साधु को