Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 359
________________ ३२८ भाषारहस्यप्रकरणे स्त. ५. गा. ९५ ● लुम्पकमतलुम्पनम् ननु यद्येवं बोटिकनिह्नवादा'वन्वर्थसाधुशब्दाभिधानं मृषा कथं तर्हि पाषाणमय्यां प्रतिमायामन्वर्थार्हदादिपदगर्भस्तुतिकरणं सार्थकमिति चेत्? आः पाप ! वृथा छिद्रान्वेषणमेतत् उक्तस्थलेऽसंयतोपबृंहणदोषाभावेन स्थापनासत्यस्याऽनिरुद्धप्रसरतया दोषालुम्पकःप्रतिबन्द्या शङ्कते नन्विति । यद्येवमिति । साधुशब्दस्य गुणोपबृंहणप्रवणत्वेन बोटिकनिनवादौ = जिनोक्तापलापेन मिथ्यात्वकलुषितहृदयतया भावयतित्वशून्ये आशाम्बरादौ, अन्वर्थसाधुशब्दाभिधानं = सार्थकसाधुपदप्रयोगो मृषेत्युपेयते युष्माभिरिति शेषः । लुम्पकः स्वकलुषिताशयं प्रकटयति-कथमिति । प्रतिमायामार्हन्त्यादिपरगुणप्रतिपादनप्रवणार्हदादिपदस्य मृषात्वमेव स्वाऽविषये प्रवर्त्तनात्, तस्या जडत्वेन जीवगुणविकलत्वात्। असत्यवचनं च पापकर्मबन्धकारणमेव अतो न तत्र तादृशपदगर्भितस्तवनादिकरणं सार्थकं = निर्जरा- पुण्यबन्धादिकारणम्। प्रयोगा एवम् प्रतिमाविषयकार्हदादिपदं मृषा सार्थकपदत्वे सति स्वाऽविषयविषयकत्वात् बोटिकविषयकसाधुपदवत् । प्रतिमायामर्हदादिपदप्रयोगः कर्मबन्धादिहेतुः मृषापदप्रयोगत्वात् आशाम्बरविषयकसाधुपदवत् । प्रतिमायामर्हदादिपदगर्भस्तवनं न कर्तव्यं अशुभकर्मबन्धादिहेतुत्वात् दिगम्बरविषयकसाधुपदप्रयोगवत्" इति लुम्पकाशयः । तन्निराकरोति आः पाप इति । करुणागर्भं शिक्षावचनमिदम् । अतो नासत्यमिति ध्येयम् । उक्तस्थले = प्रतिमायामर्हदादिपदे। असंयतोपबृंहणदोषाभावेनति । इदमुपलक्षणं तज्जातीयभिन्नत्वस्य । अयं भावः भगवत्प्रतिकृष्टे बोटिका दौ साधुप्रयोगे सति प्रयोक्तुः पापकर्मबन्धः १, आज्ञाभंगः २ तच्छ्रुत्वा अन्येऽपि तत्र साधुपदं प्रयुञ्जत इत्यनवस्था३ तच्छ्रवणेऽन्येषां तत्र साधुत्वबुद्धिजननेन मिथ्यात्वं४, तत्कृतासंयमोपबृंहणेन संयमविराधना५, अन्येषां साधुपदकी उपबृंहणा- अनुमोदना न करने के सबब सम्यग्दर्शन के आचार में अतिचाररूप दोष लगता है ऐसा श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराज आदि प्रामाणिक ज्ञानवृद्ध आचार्यों ने बताया है। इससे यह सिद्ध होता है कि असाधु में जैसे साधुशब्द का प्रयोग दोषावह है वैसे साधु में साधु शब्द का अप्रयोग भी दोषावह है। असाधुता की आशंका का निमित्त भी होता है। O लुंपक पूर्वपक्ष:- ननु यद्येवं इति । यदि भावसाधुत्व से रहित आजीवक, दिगंबर, निह्नव आदि में प्रयुक्त साधु शब्द, जो कि सान्वर्थ है, असत्य है तब तो पत्थर से बनी जड प्रतिमा में अरिहंतपद आदि से गर्भित स्तुति करना भी कैसे सार्थक होगा ? आशय यह है कि जैसे भावसाधुत्वशून्य निह्नवादि में प्रयुक्त साधुशब्द असत्य है वैसे अरिहंतत्व, जो कि जीव का ही विशेष गुण है, जिसमें नहीं है ऐसी जड प्रतिमा में प्रयुक्त अरिहंत शब्द भी मृषा ही होगा। जो भाषा मृषा होती है उसका तो त्याग ही करना चाहिए, क्योंकि वह भाषा पापकर्मबंध का निमित्त होती है। अतः प्रतिमा के सामने अरिहंत, भगवंत आदि शब्द से घटित स्तुति आदि का प्रयोग नामुनासिब है । * प्रतिमा के सन्मुख स्तुतिकरण असत्य नहीं है * उत्तरपक्ष :- आः पाप! इति । उस्ताद ! किसीको पानी में से पोरा (जंतुविशेष) निकालते देख कर तुम दुध में से पोरा निकालने की कोशिष कर रहे हो! लानत है आप की दोषदृष्टि को, जो निर्दोष प्रभुप्रतिमा में भी दोष देखने को तैयार हुई है। मगर आपका यह प्रयास व्यर्थ है। दिगंबर आदि निह्नव में, जो मिथ्यात्वग्रस्त होने से भावसाधुत्वविनिर्मुक्त हैं, साधु पद का प्रयोग करने पर उनमें रहे हुए असाधुत्व और दूसरे दोषों की अनुमोदना हो जाती है। इसके अतिरिक्त अनवस्था आदि दोष प्राप्त होते हैं। इसलिए भावतः असाधु में साधुपद का प्रयोग निषिद्ध है। जब कि जिनप्रतिमा में अरिहंत शब्द का प्रयोग करने पर असंयत की उपबृंहणा आदि कोई दोष नहीं है, क्योंकि जिनेश्वर की भाँति जिनेश्वर की प्रतिमा भी राग-द्वेष-मोह आदि दोष से रहित होती है। जहाँ दोष ही नहीं है वहाँ दोष की अनुमोदना कैसे? जिसमें कोई दोष न हो और भावनिक्षेप का वैजात्य भी हो उसमें तो स्थापना प्रवर्तमान होती है- यह बात तो पूर्व में २१ वीं गाथा में विस्तार से बताई गई है। अतः अरिहंतपद की स्थापना तो प्रतिमा में अनिराकार्य है। इसी सबब जिनप्रतिमा में प्रयुक्त अरिहंत आदि शब्द में स्थापनासत्यत्व की सिद्धि होती है। स्थापनासत्यत्व से विभूषित भाषा का प्रयोग करने में कुछ भी दिक्कत नहीं है। अतः जिनप्रतिमा में अरिहंत आदि शब्द से गर्भित स्तुति करना भी मुनासिब ही है । जाकी रही जैसी भावना, प्रभु मूरति देखी तीन तैसी । १ मुद्रितप्रतौ - 'देर.' इति पाठोऽशुद्धः ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400