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* उपबृंहणस्य विनयत्वोक्तिः *
३२७ नत्वेन दोषानुबन्धितया च मृषात्वोपपत्तेः । अत एव स्वविषये एतत्प्रयोगस्य गुणानुबन्धितया ज्ञानदर्शनचारित्रसंपन्ने भावसाधौ साधुपदानभिलापे' उपबृंहणातिचारदोषप्रसङग इति वदन्ति।
हेत्वन्तरमाह दोषानुबंधितया चेति मिथ्यात्वोपबृंहणादिदोषानुबन्धितया चेत्यर्थः । प्रयोगा एवम् विवादास्पदीभूतं वचनं मृषा दोषानुबन्धित्वात् क्रोधादिनिःसृतवचनवत्। तदपि कुतः? उच्यते आजीवकादौ साधुशब्दः दोषानुबन्धी कुगुरौ सुगुरुबुद्धिजनकत्वात् सम्प्रतिपन्नवत्।
एतेन आजीवकादौ साधुशब्दः 'अयं लोकैः साधुपदेन व्यवह्रियते' इति तात्पर्यप्रयुक्तः न तु 'अयं भावसाधुः' इति विवक्षया प्रयुक्तः । तेन तस्य व्यवहारसत्यत्वमेवेति निरस्तम् तथाविवक्षया प्रयोगेऽपि श्रोतृणां पारमार्थिकसाधुत्वप्रकारकशाब्दबोधजनकत्वेन तत्प्रयोगस्य निषिद्धत्वात्, साधुपदप्रवृत्तिनिमित्तशून्ये तत्प्रयोगेनोन्मत्तप्रलापत्वापत्तेश्च ।
अभिधानप्रयोजने तुपस्थिते तं नामधेयेन तदस्मरणे च गोत्राभिलापेन तदस्मरणे आजीवकाद्यभिधानेन तदज्ञानेंऽगुलिनिर्देशादिना 'अयमागत' इत्यादिरूपेण प्रदर्शयेत् येन न दोषापातो न वा प्रयोजनासिद्धिरिति । एतेन प्रसिद्धद्रव्यलिङ्गिविषयकवाग्विधिरपि व्याख्यातः। ___ अत एवेति। साध्वादिशब्दानां सान्वर्थत्वादेवेति। स्वविषये = साध्वादिशब्दयोगार्थसमायुक्ते, एतत्प्रयोगस्य = साध्वादिशब्दप्रयोगस्य, गुणानुबन्धितया = साध्वादिविशेष्यक-साधुत्वादिप्रकारकबुद्ध्याधान-तबहुमान-भक्तिसत्प्रशंसादिलक्षणोपबृंहणादिगुणावहतया । ज्ञानदर्शनचारित्रसम्पन्ने इति। स्वरूपविशेषणमेतत् । तदुक्तं 'नाणदंसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं । एवंगुणसमाउत्तं संजय साहुमालवे ।। (द.वै. ७/४९)। ___ उपबृंहणातिचारदोषप्रसङ्ग इति। उपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां वैयावृत्त्यादिगुणानामनुमोदनं प्रशंसनं । तदुक्तं निशीथचूर्णी 'उववूहणत्ति वा पसंसत्ति वा सद्धाजणणत्ति वा सलाघणत्ति वा एगट्ठा' (नि.चू.उ. १) उपबृंहणं च दर्शनाचारः, तदकरणेन दर्शनाचारातिचारस्स्यादिति भावः। उपबृंहणं च विनयतयाऽन्यत्रोक्तः। तदुक्तं श्रीनिशीथ 'खवणे वेयावच्चे विणए सज्झायमादिसंजुत्तं। जो तं पसंसए य स होति उवबूहणाविणओ' || (नि.२७) एवं स्वविषये तदप्रयोगेनोपबृंहणाख्यविनयातिचारस्स्यादिति अपि सम्भवति। वदन्तीति। श्रीहरिभद्राचार्यप्रमुखाः श्रुतवृद्धा इति शेषः । साधुशब्द साधु के तादृश गुण का उपबृहक है। साधु में साधु शब्द के प्रयोग से उसमें रहे हुए मोक्षमार्गसाधकत्वरूप गुण की प्रशंसा होती है। इसलिए जो मोक्षमार्ग का साधक नहीं है उसमें मोक्षमार्गसाधकत्वरूप गुण के सूचक एवं अनुमोदक शब्द का जो प्रयोग करेगा वह पुरुष अवश्य मूढ होगा। वह व्यामोह के सबब ही असाधु में साधु शब्द का प्रयोग करता है। मोहप्रयुक्त होने से वह वचन मृषा है, इसमें कोई विवाद नहीं है। आजीवकादि में प्रयुक्त साधुशब्द मृषा होने का दूसरा हेतु है दोषानुबंधित्व । साधु शब्द को सुन कर श्रोता को आजीवक आदि में पारमार्थिक साधुत्व की बुद्धि उत्पन्न होती है। इस तरह मिथ्यात्व और असंयम का उपबृंहण (अनुमोदन) हो जाता है। इसके अतिरिक्त आज्ञाभंग, अनवस्था, कर्मबन्ध आदि अनेक दोष होते हैं। दोषानुबंधी होने से वह भाषा मृषा है - यह सिद्ध होता है।
* गुणवान की अनुपबृंहणा दोषरूप है * अत एव. इति । साधु आदि शब्द सार्थक होने से गुण का अनुमोदक है और असाधु में प्रयुक्त वह दोषावह है, मृषा है। इसीलिए भावसाधु में साधु पद का प्रयोग न करने पर उपबृंहणरूप दर्शनाचार में अतिचार दोष लगता है। आशय यह है कि साधु शब्द सार्थक होने से जब ज्ञानदर्शनचारित्रसंपन्न भावसाधु में प्रयुक्त होता है तब उसके साधुत्व की यानी ज्ञानादि रत्नत्रय से मोक्षमार्गसाधकत्व की अनुमोदना होती है, जो सम्यग्दर्शन का आचार होने से गुणानुबन्धी है। भावसाधु में प्रयुक्त साधुशब्द को सुन कर श्रोता को भी साधु के प्रति आदर-भक्तिभाव पेदा होता है। अतः अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल एवं स्थिर करने के लिए भावसाधु में साधु शब्द का प्रयोग करना चाहिए। जब रत्नत्रयसंपन्न मुनिराज में साधु शब्द का प्रयोग नहीं होता है तब उसके गुण
१ मुद्रितप्रतौ 'लापेन' इति पाठः ।