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३३४ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९७
० आयव्ययप्रेक्षापूर्वकशुद्धवचनप्रयोगस्य कर्तव्यत्वोक्तिः । युक्त्या च दोषान् गुणांश्च ज्ञात्वा। एवञ्च गुणदोषचिन्तया क्वचिद्विहितस्याऽकरणे विपर्यये वा न दोषः, पुष्टालम्बनाश्रयेणनाऽऽज्ञानतिक्रमात् । अत एवोक्तं 'तम्हा सव्वाणुन्ना, सव्वनिसेहो य, पवयणे नत्थि । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखिव्व वाणियओ।। (उप. मा. ३९२)।।९७।।
विपर्यय इति। अविहितकरणे। दोषाभावे हेतुमाह पुष्टालंबनाश्रयणेन दोषप्रतिरोधकपरिपूर्णसामर्थ्यविशिष्टालम्बनकरणेन, आज्ञाऽनतिक्रमात् भगवदाज्ञाया अनुल्लङ्घनात्। अयं भावः विपर्ययनिरासानुकूलसौम्यगुणदोषचिन्तारूपयतनापरिणामात्मकपुष्टालम्बनेन प्रवृत्तौ सत्यां कदाचिद् द्रव्यतः आज्ञायाः अतिक्रमेऽपि भावतः आज्ञाया अनतिक्रमात् न कश्चिद् दोषः प्रत्युत महानिर्जरैव विधिविशुद्धपरिणामेन वचनाराधनात्। तदुक्तं षोडशके'वचनाराधनया खलु धर्मस्तद्बाधया त्वधर्म इति । इदमत्र धर्मगुह्यं सर्वस्वं चैतदेवास्य ।। (षोड.२/१२) वचनाराधना च परिशुद्धः ज्ञानयोग एवेति सूक्ष्ममीक्षणीयं नानाशास्त्रैदम्पर्याार्पितदृष्टिभिः । __ अत एवेति पुष्टालम्बनेनाऽऽज्ञानतिक्रमादेवेति। उपदेशमालावचनसंवादमाह- 'तम्हा' इति। तपःसंयमचरणोद्युक्तस्यैकत्र वर्षशतवासेऽपि आराधकत्वादिति; तत्र चेयं गाथा- 'जियकोहमाणमाया जियलोहपरिसहा य जे धीरा। वुड्डावासेऽवि ठिया खवंति चिरसंचियं कम्मं ।। पंचसमिया तिगुत्ता उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे। वाससयंपि वसंता मुणिणो आराहगा भणिया।। (उप.मा.३९०-३९१) इत्यादिगाथानन्तरं वर्तते इति हेतोः। शब्दमात्रमूढतया न भाव्यं किन्तु निपुणमतिना अशठपरिणामेन उपदेशपदादिमहाशास्त्रोपदर्शितदिशा शास्त्रैदम्पर्यार्थोऽन्वेषणीय इति तात्पर्यम् । अत एवोक्तं प्रशमरतौ 'किञ्चिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यात् स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम्। पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्यं वा ।। देशं कालं पुरुषमवस्थामुपयोगशुद्धपरिणामान्। प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्पते कल्प्यम् ।।' (प्र.र.१४५-१४६) इति। ___ यदि सूत्रोक्तान्यथाकरणे वचनविराधनैव स्यात् तदा साम्प्रतं कल्पप्रावरणादिप्रवृत्त्या कथं न सा?। तदुक्तं "अन्नह भणिउं पि सुए किंची कालाइकारणाविक्खं। आइन्नमन्त्रह च्चिय दीसइ संविग्गगीएहिं।। कप्पाणं पावरणं अगोअरच्चाओ झोलिआभिक्खा। उवग्गहिअकडाहय तुंबयमुहदाणदोराई।। सिक्किगनिक्खिवणाइपज्झोवसणाइ तिहिपरावत्तो। भोअणविहिअन्नत्तं एमाई विविहमन्नं पि।।" (य.ल.स.७-८-९) न चैतद् दूषणीयम्, आज्ञाविराधनाप्रसङ्गात्। तदुक्तं अवलंबिउण कज्जं जं किंचि समायरंति गीयत्था। थोवावराहबहुलगुणं सव्वेसिं तं पमाणं तु।। (य.ल.स.११)। इत्यन्यत्र विस्तरः।। ९७।।
जिसे अकर्तव्य बताया है उसका अमल हो जाए। तब आगम और युक्ति का आलंबन करने पर भी आज्ञा की विराधना ही होगी।
समाधान :- एवञ्च इति । हमने जो पूर्व में कथन किया है उसीसे आपकी शंका का समाधान हो जाता है। इसका कारण यह है शास्त्रपरिकर्मित बुद्धि से गुण-दोष की विचारणा करने से प्रायः विहित का अकरण और अविहित का करण नहीं होता है। मानो कि गुण-दोष की विचारणा करने पर भी कदाचित् भवितव्यतावश विहित का अकरण और अविहित का करण हो जाए तब भी साधु दोष से बचा रहता है, अल्प दोष में भी वह जिम्मेदार नहीं होता है, क्योंकि जिनागम और सुयुक्ति से गुणदोष की विचारणा मुनि के लिए मुनासिब है, जिसमें दोषनिरोध का परिपूर्ण सामर्थ्य रहता है। अतएव परमार्थ से आज्ञा की विराधना=अतिक्रमण की संभावना नहीं है। जिनशासन का प्राण अनेकांतवाद है। अतः शास्त्र में जो कुछ बताया गया हैं वैसा ही सबको सदा के लिए सभी जगह और सब परिस्थितियों में अवश्य ही पालन करना हो-ऐसा एकान्तवाद नहीं है। द्रव्य-क्षेत्रादि की अपेक्षा बाह्य आज्ञा में परावर्तन होने का अवकाश रहता है। अतएव कदाचित् कारणवश द्रव्यतः आज्ञा का अतिक्रमण प्रतीत होने पर भी परमार्थ से जिनाज्ञा का भंग नहीं होता है। इसी सबब उपदेशमाला शास्त्र में श्रीधर्मदासगणी ने भी है कि-'अतएव जिनशासन में किसी भी
२ तस्मात् सर्वानुज्ञा सर्वनिषेधश्च प्रवचने नास्ति। आयं च व्ययं च तोलयेल्लाभाकांक्षीव वाणिजकः ।।