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३२४ भाषारहस्यप्रकरणे
स्त. ५. गा. ९५
● अनुविचिन्त्य वक्तव्यम्
ननु 'सर्वो ग्रामो भोक्तुमागत' इत्यादिवत् 'सर्वमेतत्' इत्यादिकं नासम्भवग्रस्तमिति चेत् ? न, समुच्चये तथाविधविवक्षाऽभावात् चारित्रभावावस्थायामेतादृशाऽप्रयोगाच्च ।
शङ्कते - नन्विति । सर्वो ग्राम इति । यथा ग्रामस्य प्रधानपुरुषापेक्षया यद्वा प्रायिकापेक्षया तत्र नासम्भवग्रस्तत्वं तथा प्रकृतेऽपि मुख्यप्रतिपाद्यापेक्षया बाहुल्यापेक्षया सन्देशकतात्पर्यनिर्वाहकत्वापेक्षया वा नासम्भवित्वं न वा द्वितीयमहाव्रतविराधनमिति नन्वाशयः। तन्निराकरोति नेति । 'समुच्चये' इत्यनन्तरं एव इति गम्यम् । यथासम्भवमन्वयः समुच्चयः । अध्याहृतैवकारेणाभ्युच्चयव्यवच्छेदः कृतः । तथाविधेति । तत्रैव नियमेनाऽन्वयविवक्षाया अभावादिति । अयं भावः तत्र भोजननिमित्तकागमनक्रियाया नाऽवच्छेदकावच्छेदेनाऽन्वयो विवक्षितः किन्त्ववच्छेदकसामानाधिकरण्येन। अतो न तत्राऽसम्भवग्रस्तत्वं किन्तु प्रकृते अभ्युच्चयस्य विवक्षितत्वाद् वाचिकार्थकथनक्रियायाः सन्देशपदप्रतिपाद्याया न कथनीयविधयाऽभ्युपगतत्वसामानाधिकरण्येनाऽन्वयो विवक्षितोऽपि तु तदवच्छेदेन । तथा चासंभवग्रस्तत्वमेव प्रकृते इति भावः । यद्वा न श्लेषो न क्रियते तदा समुच्चये एव यथासंभवमन्वयविवक्षाया भावादित्यर्थो लभ्यते । न चार्थभेदः कश्चिदिति सुधिया भावनीयं स्वयमेव ।
हेत्वन्तरमाह-चारित्रेति । भावचारित्रे सति अभ्युच्चयाऽप्रयोगाच्चेत्यर्थः । अयं भावः तथाऽकथननिश्चयसत्त्वेऽपि प्रयोग करना - बोलना नामुमकिन है। इसी सबब अभ्युच्चयभाषा का प्रयोग करने में द्वितीय महाव्रत की, जिसका नाम है मृषावादविरमण महाव्रत, विराधना-भंग होने की आपत्ति = दोष के जिम्मेदार साधु होते हैं। द्वितीय महाव्रत की विराधना होने के सबब अभ्युच्चय भाषा साधु के लिए निषिद्ध है। इसी तरह 'सब साधु गये या नहीं?' इत्यादि स्थल में भी सर्व रीति से सोच-समझ कर बोलना चाहिए, जिससे असंभवाभिधान न हो और अपने इष्ट प्रयोजन की सिद्धि हो ।
शंका :- ननु सर्वो. इति । समूहभोज आदि प्रसंग में यह सुना जाता है कि- 'पूरा गाम जिमने के लिए आया था। यह प्रयोग तो लोकप्रसिद्ध है। इसी सबब इसके प्रामाण्य = सत्यत्व की उपपत्ति करनी होगी। आपकी दृष्टि से तो गाम के छोटे बच्चे से ले कर बूढ़ा आदमी तक कोई एक भी जिमनवार में अनुपस्थित हो तब तो यह प्रयोग सत्य सिद्ध नहीं हो सकता है। जब सबके सब जिमने के लिए आए हो तभी तादृश वचन सत्य हो सकता है। मगर 'पूरा गाम जिमने के लिए आया था' इत्यादि वचनप्रयोग जहाँ होता है उस स्थल में सब के सब जिमने के लिए उपस्थित थे ऐसा नहीं होता है, क्योंकि कुछ बूढे- बच्चे लोग या रोगी आदमी समूहभोज में अनुपस्थित होते हैं। मगर फिर भी अनेक बार धार्मिक मासिक-पाक्षिक मेगेझिनों में यह पढा गया है कि- 'अमुक आचार्य भगवंत की निश्रा में की गई प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आदि प्रसंग में पूरा गाम समूहभोज में आया था' ।
यदि आप यहाँ ऐसा समाधान करेंगे कि 'पूरा गाम' का मतलब गाम के प्रधान आदमी या यथासंभवित लोग या प्रायः गाम के सब लोग ऐसी विवक्षा को लक्ष्य में रख कर उस प्रयोग में प्रामाण्य= सत्यता का समर्थन करेंगे तब तो 'मैं यह सब कहूँगा' इस वाक्य में भी सत्यता सिद्ध हो जायेगी। तब उसे असत्य कहना या उसे बोलने का निषेध करना कैसे मुनासिब होगा ?
* समुच्चय और अभ्युच्चय में भेद
समाधान :- न समुच्च. इति। आपकी बात ठीक नहीं है, क्योंकि आपसे प्रदर्शित दृष्टांत और प्रस्तुत दान्तिक में वैषम्य है । 'पूरा गाम जिमने के लिए आया था' यह वाक्य समुच्चयवाक्य है जब कि 'मैं यह सब जरूर कहूँगा' यह अभ्युच्चय वाक्य हैं। समुच्चय वाक्य में यथासंभव अन्वय की विवक्षा होती है, नियमेन अन्वय की विवक्षा नहीं। अर्थात् 'सर्वो ग्रामो भोक्तुमागतः इस स्थल में भोजनिमित्तक आगमन क्रिया का अन्वय ग्रामस्थ सब लोक में अवश्य हो ऐसा विवक्षित नहीं होता है किन्तु यथासंभव अन्वय विवक्षित होता है, जो अबाधित होने से वह वाक्य मृषा नहीं होता है। मगर 'सब कहूँगा' यह अभ्युच्चय वाक्य होने के सबब प्रतिपादित सब शब्द में अवश्य कथनक्रिया का अन्वय होना चाहिए, यथासंभव नहीं। मगर सबका अवश्य अन्वय (संबंध) तो नामुमकिन है - यह पूर्व में बताया गया है। अतः यहाँ दोहराकर बताना हम नामुनासिब समझते हैं।
* भावचारित्र की उपस्थिति में असंभव अवधारणकथन नामुमकिन *
चारि. इति। इसके अतिरिक्त इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है कि भावचारित्रधारी साधु भगवंत अभ्युच्चय का,
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