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* अभ्युच्चयसमुच्चयवचनविमर्शः *
३२३ विरतानामस्माकमीदृशेन व्यापारेण" इति ।।९४ ।।
'अब्भुच्चयं ण भासिज्जा आणत्तिं अजयाण य। असाहुलोगं साहुत्ति सदोसासंसणं तहा।।९५।।
केनचित् कस्यचित् सर्वमेतत् त्वया वक्तव्यमिति संदिष्टे सर्वमेतद् वक्ष्यामीति संदेशं प्रयच्छन् 'सर्वमेतदिति वाभ्युच्चयं न भाषेत न वदेत् सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनाद्युपेतस्य वक्तुमशक्यत्वेनाऽसम्भवाभिधाने द्वितीयव्रतविराधनाप्रसङ्गात्। तथा च 'सर्वे साधवो गता न वा?' इत्यादिस्थले सर्वथाऽनुविचिन्त्यैव वदेत् यथाऽसम्भवाभिधानं न भवतीति।
स्वस्य सन्देशवाहकत्वदशायां वाग्विधिमुक्त्वा सन्देशदातृत्वदशायां तत्प्रदर्शयति । सर्वमेतदिति वेति । एतदित्यनन्तरं 'एवं त्वया वक्तव्यमि'ति शेषः । अभ्युच्चयमिति। नियमेनाऽन्वयोऽभ्युच्चयः । तत्सूचकः शब्दोऽप्यभ्युच्चय इत्युच्यते अभ्युच्चस्य भाषणेऽशक्यत्वं (ग्रं. ६५०० श्लोक) प्रदर्शयति सर्वस्येति। तदुक्तं चूर्णी जहा कोइ कत्थइ गच्छमाणो केणइ भणेज्जा, जहा मम वयणेण देवदत्तं इयं भणेज्जासि त्ति। तत्थ न वत्तव्वं 'जहा सदमेयं वइस्सामि'त्ति। किं कारणं? जेण सो सव्वं सरवंजणमधुरकडुयादिहिं गुणेहिं उववेयं तहेव अविसेसियं सव्वं भणिउं ण समत्थोत्ति । तहा सव्वमेतं ति णो वएज्जा जहा सव्वमेतं मम वयणेण अमुकं नामदेयं भणिज्जासित्ति। एवमादि भासं णो वदेज्जा" (द.वै.जि.चू.पृ. २६०) ___ यद्यपि गृहस्थसन्देशप्रदानादेः दूतीदोषत्वेन नोत्सर्गतोऽनुमतत्वं तथापीदमपवादाभिप्रायेण यद्वा धर्मोपदेश-स्मारणवारणाद्यभिप्रायेण यद्वा साधुकथनाद्यभिप्रायेण द्रष्टव्यमिति न दोषः। अनुविचिन्त्यैवेति। सूक्ष्मालोच्येति। तदुक्तं 'सव्वमेअं वइस्सामि सव्वमेअंति नो वए। अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज्ज पन्नवं ।।' (द.वै. ७/४४)
समाधान :- व्यवहारं पृष्ट इति । ना, हमें अच्छी तरह वह ख्याल में है। मगर साथ साथ प्रासंगिक जानकारी भी देना उचित समझ कर हमने यह सब बताया है। अब सुनियेगा आपके प्रश्न का प्रत्युत्तर । जब क्रय-विक्रय आदि के प्रसंग में गृहस्थ साधु से प्रश्न करे कि-'यह चीज कैसी है? इसका मूल्य क्या है?' इत्यादि, तब गृहस्थ से ऐसा कथन करना साधु के लिए मुनासिब है कि"मैं इस चीज की किंमत नहीं जानता हूँ, क्योंकि यहाँ दीक्षा लेने के बाद क्रय-विक्रय के योग्य चीज किसीको न तो देता हूँ और न लेता हूँ। हम बाजार में कभी खरीदी करने के लिए नहीं जाते हैं, जिससे हमें इस बात की जानकारी हो । संसार को ठुकरानेवाले हम महात्माओं के लिए इसकी आवश्यकता भी क्या है कि- 'किस चीज की किंमत क्या है? हम तो जीर्ण-शीर्ण वस्त्र आदि जो मिलते हैं उनसे निर्दोष संयमजीवन का निर्वाह कर रहे हैं। ऐसा कहने में गृहस्थ का खौफ या शर्मिन्दगी रखना साधु के लिए नामुनासिब है, अन्यथा लोकसंज्ञा में पड़ कर जनमनरंजन करने में संयमजीवन की बरबादी और कंटकपूर्ण संसार की आबादी भी संभवित है। मन लग गया फकिरी में, अमीरी क्या बेचारी? अस्तु! इस गाथा का सारांश यह है कि प्रयोजन उपस्थित होने पर शास्त्र के तात्पर्य को ख्याल में रख कर, सोच समझ कर प्रिय-पथ्य-तथ्य-शुद्ध-निरवद्य वचन का साधु प्रयोग करे और सावद्य वचन का त्याग करे।।९४।।
गाथार्थ :- साधु को अभ्युच्चय नहीं कहना चाहिए। तथा असंयत के प्रति आज्ञापनी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए, असाधु को साधु नहीं कहना चाहिए तथा सदोष आशंसन भी नहीं बोलना चाहिए।९५।
* अभ्युच्चयकथन त्याज्य है * विवरणार्थ :- साधु के लिए अभ्युच्चय भाषा बोलना निषिद्ध है। जैसे कोई साधु से कहे कि- 'आप वहाँ जाते हैं तो उसे यह सब कुछ कहना' ऐसा कह कर संदेश बतावे तब 'मैं यह सब कहूँगा' ऐसा साधु कहे तो यह अभ्युच्चय भाषा हुई। यहाँ अभ्युच्चय का अर्थ यह होता है कि- संदिष्ट सब वस्तु का ज्यों का त्यों अवश्य कथन करने का संदेश देने का अंगीकारसूचक वचन । इसी तरह जब मुनिराज किसीके द्वारा संदेश भेजते हुए यह सूचना दे कि- 'आप यह सब कुछ ज्यों का त्यों कहना' तो यह भी अभ्युच्चय भाषा है। अभ्युच्चय भाषा बोलना मुनिराज के लिए निषिद्ध है, क्योंकि संदेश देनेवाले ने जिन स्वर, व्यंजनों का, जो मधुरता-कर्कशता-ह्रस्वता-दीर्घता आदि अनेक विशिष्ट धर्मों से युक्त हैं, प्रयोग किया है वैसे माधुर्यादियुक्त स्वर-व्यंजन आदि का
१ अभ्युच्चयं न भाषेत आज्ञप्तिमयतानां च। असाधुलोकं साधुरिति, सदोषाशंसनं तथा ।।९५ ।।