Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 346
________________ * पर्यनुयोगत्रितयविद्योतनम् * ३१५ वदेत् पुनः = साधुमार्गकथनादौ प्रयोजने, शुद्धवचनेन । तथाहि - 'बहुभृता एताः' = प्रायशो भृता इत्यर्थः । तथा 'बह्वगाधाः' = प्रायो गम्भीरा इत्यर्थः। तथा बहुसलिलोत्पीडोदकाः = प्रतिश्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः । तथा बहुविस्तीर्णोदकाः = स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजला इत्यर्थः। अत्र 'यद्यपि एतादृशशुद्धवचनाथैदम्पर्यपरिज्ञाने श्रोतृणां प्रवृत्तिनिवृत्यादिपूर्वोक्तदोषतादवस्थ्यं, 'तदाऽऽगतप्रश्नोपेक्षया तूष्णीम्भावे वदेदिति। तदुक्तं-तहा नईओ पुण्णाओ कायतिज्ज त्ति नो वए। नावाहिं तारिमाउत्ति पाणिपिज्जत्ति नो वए।। बहुवाहडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा । बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज्ज पन्नवं ।। (द.वै.३८/३९) बहुसलिलोत्पीडोदका इति। अन्यनदीजलप्रवाहेन उत्पीडितंवाहितं उदकं अपरजलं यासुः तास्तथेत्यर्थः । इदमेवाह- प्रतिश्रोतोवाहितापरसरित इति। तदुक्तं चूर्णी- 'बहुउप्पिलोदगा नाम जासिं परनदीहिं उप्पीलियाणि उदगाणि अहवा बहुउप्पिलोदओ जासिं अइभरियत्तणेण अण्णओ पाणियं वच्चइ' (द.वै.जि.चू.पृ.२५८) अन्ये तु बहुसलिला उत्पीडोदका इति पृथक्पदद्वयं वर्णयन्ति । तदुक्तं "बहुयं पुण पाणियं जासु ता बहुसलिला | जासिं समुद्देण अण्णाए वा पवहाएणदीए उप्पीलियमुदगं ण णिव्वहति ता उप्पीलोदगा" (द.वै.अ.चू.पृ.१७४)।। बहुविस्तीर्णोदका इति। बहु विस्तीण=स्वतीरप्लावनप्रवृत्तं उदकं जलं यासां तास्तथा। इदमेवाऽऽह- स्वतीरप्लावनप्रवृत्तजला इति । प्राचीनतमचूर्णी तु 'णदीओ विकिट्ठप्पधाणि विरल्लेंतीओ बहुवित्थडोदगा' इत्युक्तम्। ननु नदीविषये प्रश्ने कृते सति साधुना किं (१) शुद्धवचनं प्रयोक्तव्यं? (२) उताहो मौनमङ्गीकर्तव्यम्? (३) आहोस्वित् तदपरिज्ञानं ज्ञापनीयं? इति पक्षत्रितयी प्रगुणगुणत्रयीव सकलजीवलोकविलोकनीया कमनीयव्यापारसारा सर्वत्राऽप्रतिहतप्रसरा प्रसरीसरीति वरीयसीति मनसिकृत्याऽऽयद्यपीति। अस्य च तथापीत्यनेनाऽन्वयः। तत्र नाद्यो विद्योतते सद्योविद्योतिविद्योद्योगिहृदयसहृदयसमुदयसदसि प्रणिगद्यमानः, पूर्वोक्तदोषतादवस्थ्यकलङ्कपङ्कपङ्किलत्वादित्याशयेनाऽऽह 'एतादृशेति। बहुभृतादिशुद्धवचनैदम्पर्यार्थावबोधे सति, श्रोतॄणां व्युत्पन्नश्रोतृणां शिष्टं स्पष्टम्। __नापि द्वितीयो विचारपदवीमारोप्यमाणः कृतपात्रतामवगाहते इत्याह तदागतप्रश्नोपेक्षयेति। ततः नदीपरकुलात् आगतस्य साधोः साध्वन्तरकृतस्य प्रश्नस्य उपेक्षया औदासीन्येन, तूष्णीम्भावे मौनाङ्गीकारे च प्रयोजनासिद्धेः = साध्वन्तरस्य गमनानुकूलत्वपरिज्ञानादिप्रयोजनासिद्धेरिति। चकारेण तत्परिज्ञाने सत्यपि प्रत्युत्तरादानेनाऽविनयादिमुमकिन है। अतः भाषाविवेकसंपन्न महात्मा के लिए तादृश वचनप्रयोग त्याज्य है। वदेत्. पुन. इति। जरूरत हो तब शुद्ध वचन का प्रयोग करना चाहिए। साधु को मार्ग बताना इत्यादि प्रयोजन उपस्थित हो तब 'नदी बहुभृत है' अर्थात् 'प्रायः नदी भरी हुई है'। 'नदी बहु अगाध है' अर्थात् 'प्रायः नदी गंभीर है'| तथा 'ये बहुसलिलोत्पीलोदगा हैं'। दूसरी नदीयों के द्वारा जिनका जल उत्पीडित होता हो वे नदीयाँ बहुसलिलोत्पीलोदगा कहलाती हैं। तथा 'ये बहुविस्तीर्णोदगा हैं' ऐसा प्रयोग जरूरत होने पर करना चाहिए। बहुत भरने के सबब जिनका जल दूसरी ओर मुड़ गया है वे नदीयाँ बहुविस्तीर्णोदगा कहलाती हैं। उपर्युक्त सांकेतिक शब्द का प्रयोग करने पर गृहस्थ को उन शब्दों के तात्पर्य का बोध न होने से अधिकरणादि दोष की संभावना नहीं रहती है। तथा पृच्छक मुनि भाषाविशुद्धि के ज्ञाता होने से अपने प्रयोजन की सिद्धि भी हो जाती है। अतः इन सांकेतिक पदों का प्रयोग करना चाहिए। पूर्वपक्ष :- अत्र यद्यपि. इति। आप पूर्ण आदि शब्दों के स्थान में 'बहुभृत' आदि शुद्ध वचन का प्रयोग करना इसलिए बताते हैं कि उन शब्दों का प्रयोग करने पर सावधप्रवृत्ति या निवृत्ति के दोष में महात्मा जिम्मेदार न हो। सामान्य गृहस्थ श्रोता की अपेक्षा आपकी बात ठीक है कि उसे उन शब्दों के तात्पर्य का बोध न होने से वह सावध किया में प्रवृत्ति नहीं कर सकता हैं। मगर जो गृहस्थ व्युत्पन्न हैं और अपनी अनूठी प्रतिभा से महात्मा के तादृश (बहुभृत आदि) शुद्ध वचन के ऐदम्पयार्थ को समझ सकते हैं वे १ मुद्रितप्रतौ - 'यदप्ये'. इत्यशुद्धः पाठः। २ 'प्रश्नोपक्षया' इति मुद्रितप्रतावशुद्धः पाठः।

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