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* ब्रह्मचर्यस्नेहस्वरूपप्रदर्शनम् *
३१९ न भाषेत मुनिः, अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात् ।
सुकृते निरवद्ये तु तत् = सुकृतादि वचनं वदेत् । तथाहि - सुष्टु कृतं वैयावृत्त्यमनेन, सुष्टु पक्वं ब्रह्मचर्यमस्य साधोः, सुष्टु च्छिन्नं स्नेहबन्धनमनेन, सुष्ठु हृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्गे, सुष्टु मृतः पण्डितमरणेन साधुः, सुनिष्ठितं कर्म अप्रमत्तसंयतस्य, सुष्टु सुन्दरा वा भिक्खुणि वा असणं वा जाव उवक्खडियं पेहाए एवं वदेज्जा। तं जहा आरंभकडेत्ति वा सावज्जकडेति वा पयत्तकडेति वा भद्दयं भद्दए ति वा ऊसढं गोसियं अणुण्णं एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासेज्जा।। (आ. चा. २/ ४/२ १३६-१३७सू.) अनुमत्यादीति । आदिशब्देन तदप्रीति-क्रयादिप्रवर्त्तन-वैरादेः ग्रहः ।
वैयावृत्त्यमिति। अस्योपलक्षणत्वात् लोच-धर्मदेशना-तपआदेर्ग्रहणम् । एवमग्रेऽपि बोध्यम् । ब्रह्मचर्यमिति। अष्टादशभेदभिन्नमैथुनवर्जनम्। अष्टांगमैथुनवर्जनं ब्रह्मचर्यमित्यपरे। तदुक्तं स्त्रिया १दर्शनं रागपूर्वकं स्त्र्यादिविषयकज्ञानम्, २स्पर्शनं रागपूर्वकं क्रियाविशेषजन्यज्ञानम्, ३केलिः=रागपूर्वकः परिहासादिव्यापारः, ४कीर्तनं स्त्र्यादेरनुरागपूर्वकं सौन्दर्यादिवर्णनम्, ५गुह्यभाषणं रागपूर्वकं रहसि सम्भाषणम्, ६सङ्कल्पः= इयं मे स्यादिति विकल्पः, अध्यवसायः७ = अनया सह सम्भोगं करिष्यामीति निश्चयः, क्रियानिवृत्तिः सुरतसिद्धिरनुभवविशेषो वा इति अष्टौ मैथुनस्याऽङ्गानि । तद्वर्जनं ब्रह्मचर्यम् ( )। परे तु त्रिधा मैथुनत्यागः ब्रह्मचर्यमित्याहुः । तदुक्तम् 'कायेन मनसा वाचा, सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागं ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ।। ( ) केचित्तु सुखविशेषहेतुशुक्रक्षरणानुकूलव्यापारपरिहारात्मक उपरथसंयमो ब्रह्मचर्यमित्यापि वदन्ति। ब्रह्माणि = आत्मनि चरणं = रमणमिति ब्रह्मचर्यमित्यापि कश्चित् । शाण्डिल्योपनिषदि 'ब्रह्मचय नाम सर्वावस्थासु मनोवाक्कायकर्मभिः सर्वत्र मैथुनत्यागः' (शा. उ. २/१) इत्युक्तम्। छान्दोग्योपनिषदि तु 'यद् यज्ञ इत्याचक्षते ब्रह्मचर्यमेव तत्।।' (छा. उप. ८-५-१) इत्युक्तम्।
सुकृते निरवद्ये इति। सावध किया में जिनके प्रयोग का निषेध किया गया है उनके प्रयोग की निरवद्य कियारूप विषय में अनुज्ञा दी गई है। जैसे कि - "इसने वैयावच्च, भक्ति अच्छी तरह की है, इस साधु का ब्रह्मचर्य अच्छी तरह पक्का है, इसने स्नेहबंधन को अच्छी तरह तोड़ दिया, शिक्षक का उपकरण उपसर्ग में अच्छी तरह लिया गया, पंडितमरण (समाधिमरण) से यह साधु अच्छी तरह मरा, अप्रमत्त साधु की कर्म अच्छी तरह खतम हो गई, साधुक्रिया खूब सुंदर है"। यहाँ जो शिक्षक शब्द आया है उसका अर्थ है नूतन दीक्षित । अपने स्वजन आदि के बलात्कार, धमकी आदि के सबब वह वापस घर लोटने को तैयार हो जाता है तब आचार्य भगवंत आदि उसे अच्छी तरह संसार की असारता, संयमजीवन की पवित्रता आदि को वैराग्यपूर्ण वाणी में समझाते हैं और उसके फलरूप में वह संयम में स्थिर हो जाता है। मगर जब समझाने के बावजूद भी बूरी भवितव्यता आदि के कारण वह बेखौफ संसार में जाने को तैयार होता है तब जाते समय उसके रजोहरण आदि, जो साधुजीवन के उपकरण होते हैं, लिये जाते हैं। यदि वह उपकरण देने को तैयार न हो तब उसे अच्छी तरह समझा कर या प्रकल्पशास्त्रोक्त अन्य उपाय से वे उपकरण लिये जाते हैं। इस प्रसंग को ख्याल में रख कर यहाँ 'सुष्टु हृतं शिक्षकोपकरणं' इत्यादि कहा गया है। अन्य दृष्टांत तो सुगम है। इसलिए उसका विवेचन कर के पाठकों का समय लेना हम नामुनासिब समझते हैं। उपर्युक्त सुकृत आदि विषयक वाच्य और अवाच्य शब्दों संक्षेप से निम्नोक्त कोष्टक में बताए गए हैं जिससे सुज्ञ वाचक दोनों की अच्छी तरह तुलना कर सके। देखिए - वाच्य विषय अवाच्य विषय
वाच्य कृत सभा आदि सुष्टु कृत वैयावच्च
सुष्ठु-कृत प्रयत्नसाधित सहस्रपाक तैल सुष्टु पक्व
ब्रह्मचर्य
सुष्ठु पक्व प्रयत्नच्छिन्न वन आदि
सुष्ठु च्छिन्न स्नेहबन्धन
सुष्ठु च्छिन्न हृत क्षुद्रका धन आदि सुष्टु हृतं
शैक्षक उपकरण
सुष्ठु हृतं मृतः प्रत्यनीक सुष्ठु मृतः
पंडितमरण से मृत मुनि सुष्ठु मृतः निष्ठितं
अभिमानी का धन सुष्टु निष्ठितं (नष्ट) अप्रमत्त यति का कर्म सुष्टु निष्ठितं प्रयत्नसुन्दरा कन्या
सुष्ठु सुंदरा साधुक्रिया
सुष्टु सुंदरा