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* दोषनिरासपराणां प्रयोजनसाधकवचनानां वक्तव्यत्वम् *
३१७ संमुग्धमेवोत्तरं देयं' इत्यभिप्रायेणैतदभिधानम्। तदिदमाह भगवान् दशवैकालिकचूर्णिकार: "तम्हा बहुवाहडाई भणेज्जा, तमवि तुरियमवक्कमंतो भणेज्जा जहा ण विभावेइ किमवि एस भणति त्ति।।"
तथा चैतादृशसंमुग्धवचनाद् व्युत्पन्नानां प्रश्नोद्यतमुनीनां प्रयोजनसिद्धिरितरेषां त्वनुषङ्गतोऽपि नाधिकरणप्रवृत्तिः, अपरिज्ञानादिति सर्वमवदातम्।।९३ ।। किञ्च संमुग्धमिति। साङ्केतिकं पारिभाषिकं वा, यतो न व्यवहारतोऽपि मृषावादः, न वा तत्पद्वेषादयो दोषाः, न वा प्रवर्त्तनादिदोषाः, न वा प्रयोजनासिद्धिः, तादृक् प्रत्युत्तरं देयमित्यर्थः । एतदभिधानमिति। बहुभृतादिशुद्धिवचनप्रयोगस्य कर्तव्यताप्रतिपादनम्। श्रीजिनदासगणिमहत्तरवचनसंवादं प्रदर्शयति-'तम्हा इति अनुक्तादौ बहुविधदोषसम्भवात् तमवि बहुभृतादिशब्दमपि, तुरियमवक्कमंतो झटिति पश्चात् वलन्=अपसरन्, न तु तत्रैव स्थित्वा निर्भरतया इत्यर्थः । सागारिकानवबोधार्थमिदमुक्तम् ।
चूर्णीकारवचनोपनयं सतात्पर्यं प्रदर्शयति-तथाचेति। प्रयोजनसिद्धिरिति। परकुलगमनानुकूलत्व-परिज्ञानादिप्रयोजननिष्पतिः। अस्य च उपलक्षणत्वादविनयपरिहारादेः ग्रहणम। इतरेषां गृहस्थानां। तुः प्रद्वेषाद्यभावसूचनार्थः । अनुषङ्गतोऽपीति। किमुत साक्षादित्यपिशब्दार्थः। अन्योद्देशेन प्रवृत्तस्य तन्नान्तरीयकविधयाऽन्यसिद्धिः अनुषङ्गपदार्थः । साधुपरिज्ञापनोद्देशेन प्रवृत्तस्य नदीपरकुलागतस्य साधोः वचनात् अन्यनिष्पादकयत्ननिष्पाद्यविधया तत्सत्ताकनियतसत्ताकविधया वा न परकीयाधिकरणप्रवृत्तिरिति भावः। हेतुमाह-अपरिज्ञानादिति। ताजक् गच्छता सता जानता' यह बोलने से शासनमालिन्य आदि बड़े दोष मुनि के गले पर आने लगते हैं। मगर शास्त्र ऐसा करने की अनुमति ही नहीं दैता है। अतः इन दोषों की संभावना खत्म हो जाती हैं। शास्त्र तो आवश्यकता के अनुसार बहुभृत आदि शुद्ध वचन का प्रयोग करने की अनुमति मुनिराज को देता है अतः आपका यह लंबा-चौड़ा पूर्वपक्ष नामुनासिब हैं।
शंका :- बहुभृत आदि शुद्ध वचन के प्रयोग से भी व्युत्पन्न श्रोता को उस शब्द के तात्पर्यार्थ का ज्ञान होने से प्रवृत्ति आदि दोषों की संभावना तो ज्यों की त्यों रहती है। सावध प्रवर्तन आदि दोष तो डॅट कर मेदान में खडे रहेंगे ही, भले ही आप शुद्ध वचन का प्रयोग करो।
समाधान :- एतादृश. इति। आप दूर की नहीं सोचते हैं कि शास्त्रवचन का तात्पर्य क्या है? और यूँ ही दोषों की वर्षा करने लगते हैं। यहाँ बहुभृत आदि शब्द का प्रयोग करने का जो विधान किया गया है उसका तात्पर्य यह है कि ऐसे स्थल में संमुग्ध प्रत्युत्तर ही देना चाहिए अर्थात् जल्दी से बहुभृत आदि सांकेतिक पदों का वहाँ प्रयोग करना चाहिए जिससे गृहस्थ को कुछ भी ख्याल न आए और पृच्छक साधु भगवंत का प्रयोजन सिद्ध हो जाय । यदि आप को हमारी बात पर यकिन नहीं है तो दशवैकालिक चूर्णिकार महनीय श्रीजिनदासगणी महत्तर के टंकशाली वचन को भी हम बताते हैं। यह रहा वह शास्त्रपाठ-अतएव (मौन रहने में या 'मैं जानता नहीं हूँ' ऐसा कहने में अनेक दोषों की संभावना होने से) वहाँ जल्दी से दूसरी ओर झुकते हुए 'बहुवाहड' आदि पारिभाषिक प्रत्युत्तर को कहना चाहिए जिससे गृहस्थ को कुछ भी मालुम न हो कि-मुनिराज क्या कहते हैं? चूर्णि के इस वचन पर खास तौर पर विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि - गृहस्थ साधु से प्रश्न करे तब गृहस्थ से दूर चलते, जल्दी से मंद आवाज़ में सांकेतिक जवाब देना चाहिए, जिससे गृहस्थ को ऐसा महसूस हो कि - 'महात्मा ने हमारे प्रश्न का उत्तर तो दिया है मगर जल्दी में होने से उसने कहा क्या? वह मालुम नहीं पड़ा'-'एसा होने से साधु के प्रति द्वेष आदि होने की या सावद्य प्रवर्तन आदि की संभावना नहीं है। यदि साधु महात्मा अन्य साधु भगवंत से प्रश्न करे और वहाँ गृहस्थ उपस्थित हो तब जल्दी से पूर्वोक्त सांकेतिक प्रत्युत्तर का प्रदान करना चाहिए, जिसका तात्पर्य प्रश्न करनेवाले शास्त्रज्ञ मुनिराज को ख्याल में आ जाए और गृहस्थ को तो उसके तात्पर्य का ज्ञान नहीं होने के सबब आनुषंगिक रूप से भी अधिकरण प्रवृत्ति की संभावना तक नहीं हो। 'आनुषंगिकरूप से' का अर्थ है कि अन्य कार्य के उद्देश से प्रवृत्त होने पर अन्य कार्य की गौणरूप से निष्पत्ति हो। मुनिराज को नदी का हाल मालुम करने के उद्देश से उत्तर प्रदान करने पर गृहस्थ की, जिसने मुनिवचन सुन लिया है, अधिकरण प्रवृत्ति, जो मुनिराज का उद्देश्य नहीं है, होना प्रस्तुत में आनुषंगिक अधिकरणप्रवृत्ति पद का अर्थ है। यह न होने का कारण यह है कि मुनिराज से कहे गए सांकेतिक शब्दों के अर्थ का गृहस्थ को ज्ञान ही नहीं है। यहाँ यह भी उचित लगता है कि मुनिराज प्रश्न करे तब