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* अधिकरणादिदोषस्वरूपप्रदर्शनम *
३१३ तथा साधुकथनादिविषये नद्यः 'सुबहुसमतीर्था' इति वदेत्, न तु 'सुतीर्थाः' उपलक्षणात् 'कुतीर्थाः' इति' वा वदेत्, अधिकरणविघातादिदोषप्रसङ्गात् । ।९२ ।। किञ्च ।
पुन्ना उ कायतिज्जा, नईउ णावाहि तारिमाओत्ति। ण वए अ पाणिपिज्जा, वए पुणो सुद्धवयणेणं ।।९३।। 'नद्यः पूर्णाः' इति न वदेत्, तथाश्रवणतः प्रवृत्तस्य निवृत्त्यादिदोषप्रसङ्गात्। तथा 'कायतीर्याः = शरीरतरणीयाः' इत्यपि न
सुबहुसमतीर्था इति। सुबहूनि समानि तीर्थानि यासां ताः तथा। प्रकृते तीर्थञ्च जलावतरणस्थानरूपं बोध्यम् । तदुक्तं हलायुधकोशे 'योनौ जलावतारे च मन्त्राद्यष्टादशस्वपि। पुण्यक्षेत्रे तथा पात्रे तीर्थ स्याद्दर्शनेषु च' ।। (ह ८६२) गृहस्थेन पृष्टे सति गृहस्थकथनादिविषये तु 'को जानाति बहुनि तीर्थानि समानि विषमानि वा?' इत्यादिवक्तव्यम् । तदुक्तं प्राचीनतमचूर्णी 'णदीतित्थाण वि साधुसु समुत्तरणत्थं पुच्छमाणेसु 'को जाणइ अंतज्जले? इमाणि पुण बहुसमाणि' | घरत्थपुच्छाओ पुण 'बहूणि से समाणि विसमाणि य को जाणति?' त्ति एवं संचिंतितं वियागरे' (द.वै.अ.चू.पृ.१७४) इति। गृहस्थे सति साधुभिः पृष्टे सति साधुना एवं वक्तव्यं- 'को जानाति कियज्जलं मध्ये? तीर्थानि तु बहुसमानि।" अतः प्रयोजनसिद्धिः अधिकरणादिदोषानापातश्चेति भावनीयम्।
अधिकरण-विघातादीति। 'सुतीर्था' इत्युक्तौ नदीतरणादिसावद्यप्रवृत्तिप्रवर्त्तनादिना अधिकरणादिदोषाः, 'कुतीर्था' इति प्रत्त्युत्तरे च गृहस्थादेः गृहं प्रति निवर्त्तनादिना आजीविकादिविघातादिदोषाः स्युः। ततः यथा साध्वादेरवगमः, अन्येषाञ्चानवगमस्स्यात् तथा विमर्शादिपूर्व झटिति साङ्केतिकपदप्रयोगः कार्य इति भावः । यथा चैतत्तत्त्वं तथाऽनन्तरगाथायां स्वयमेव वक्ष्यति विवरणकारः । तदुक्तम् 'तहेव संखडिं नच्चा किच्चं कज्जति नो वए। तेणगं वावि वज्झित्ति सुतित्थित्ति अ आवगा ।। संखडिं संखडिं बूआ, पणिअट्ठत्ति तेणगं। बहुसमाणि तित्थाणि, आवगाणं विआगरे ।। (द.वै.७/३६-३७) 'आपगाना=नदीनां, व्यागृणीयात् कथयेत् साध्वादिविषय इति शेषः, शेषमतिरोहितार्थम् ।। ९२ ।।
अप्कायोपरोधपरिहारार्थं यतनामाह-पुन्नत्ति । तथाश्रवणत इति। इदं च प्रवृत्तस्येत्यनन्तरं योज्यम् । श्रवणतः पूर्वं तब हमको सामने के गाँव आदि में जाने में सुविधा रहेगी' | तब पूछे गए मुनिराज के लिए यही कहना उचित है कि - 'नदी बहुसम तीर्थवाली है' (यदि नदी के अवतरण का स्थान = तीर्थ = घाट अच्छी अवस्था में हो तो) इस वचन से सामनेवाले साधु महाराज समझ जाते हैं कि 'अब नदी पार करने में कोई दिक्कत नहीं है। तथा इस सांकेतिक वचन को सुनकर गृहस्थ को न तो कुछ भी मालुम होता है कि 'साधु भगवंत ने क्या उत्तर दिया?' और न तो नदी तेरना आदि सावध व्यापार में वह प्रवृत्त होता है। इस तरह भाषाविवेकसंपन्न मुनिराज को वैसे सांकेतिक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जिसे इष्ट फल की सिद्धि हो और कोई अनर्थ भी न हो।
न तु सु. इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि जब सामनेवाले मुनिराज से नदी के विषय में प्रश्न किया जाए तब प्रत्युत्तर में 'नदी के घाट प्रायः समान है (=बहुसमतीर्थ)' इसके स्थान में 'नदी अच्छे घाटवाली है' ऐसा कथन नहीं करना चाहिए। उपलक्षण से 'नदी खराब घाटवाली है' ऐसा कथन भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि 'नदी अच्छे घाटवाली है' इस वाक्य को सुन कर गृहस्थ श्रोता नदी पार करना आदि सावध व्यापार में प्रवृत्त होता है और 'नदी खराब घाटवाली है' इस वाक्य को सुन कर श्रोता खौफ से वापस घर लोटता है और उसकी आजीविका आदि में व्याघात होता है। अतः तादृश वचन मुनि के लिए अवाच्य है।।१२।।
गाथार्थ :- नदी के विषय में 'ये पूर्ण हैं', 'ये कायतीर्य हैं', 'नाव से तरणीय हैं', 'ये प्राणीपेय हैं' इत्यादि कथन नहीं करना चाहिए। (प्रयोजन उपस्थित होने पर) शुद्ध वचन से बोलना चाहिए।९३।।
* नदीविषयक भाषणविधि * विवरणार्थ :- नदी पानी से भरी हुई हैं - ऐसा वाक्य साधु को बोलने के लिए निषिद्ध है। इसका कारण यह है कि स्वयं नदी १ 'न वा' इति मुद्रितेऽशुद्धः पाठः । २ पूर्णास्तु न कायतीर्या नद्यो नौभिस्तरणीयाः। न वदेच्च प्राणिपेया वदेत्पुनः शुद्धवचनेन ।।९३ ।।