________________
३१२ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९२
० स्तेन-नदीविषयकवचनविमर्शः ० तथा स्तेनमपि वधस्थानं नीयमानं शैक्षकादिकर्मविपाकदर्शनादौ प्रयोजने 'पणितार्थ वदेत् प्राणद्यूतप्रयोजनमित्यर्थः, न तु 'वध्योऽयं' इति वदेत्, तदनुमतत्वेन बह्वपराधतया हन्तॄणां हनननिश्चयप्रसङ्गात् ।
शैक्षकादिकर्मविपाकदर्शनादाविति। प्रथमादिपदेनोत्प्रव्रजनकामादीनां ग्रहणम्, द्वितीयादिपदेन च स्थिरीकरणादेः परिग्रहः । साङ्केतिकं वक्तव्यं पदमाह पणितार्थमिति। पणितेनार्थोऽस्येति पणितार्थ इति श्रीहरिभद्रसूरिव्याख्यानम् । प्राचीनतमचूर्णौ तु 'पणीयो-परभवं जस्स जीवियत्थो सो पणीतत्थो' (द.वै.अ.चू.१७४) इत्युक्तम् । तदनुमतत्वेन = वाचंयमाभिमतत्वेन, हनननिश्चयप्रसङ्गादिति। एतच्चोपलक्षणं चौराप्रीतितद्वधानुमत्यादेः। तदुक्तं चूर्णी- 'तस्स एवं भणितस्स अप्पत्तियं होज्जा, निस्सासी भवेज्जा वा जाव एतेसिं चोरग्गाहाणं एवं चिन्तायां भवेज्जा जहा एस साहुणा वज्झो भणिओ, अवस्सं पत्तावराहोत्ति काऊण मारिज्ज' (द.वै.जि.चू.पृ.२५७) मार्गपरिहारादौ प्रयोजनेऽपि पणितार्थ
योगः कार्यः यथा 'एतेन पथा पणितार्थो नीयते, ततो जनाकीर्णत्वेन तेन पथा न गन्तव्यम्' इत्येवमादिः। अनुसार नहीं? क्या आपको यह मालुम नहीं है कि संमूर्छिम मत्स्य मन=भाव न होने पर भी मरने के बाद द्रव्य मत्स्यहिंसा के सबब नरक में जा सकता है? सिर्फ भाव शुद्ध रखो, द्रव्य अशुद्ध-मलीन-सावध होगा तो भी कोई दोष नहीं है - ऐसा सर्वज्ञशासन में मान्य नहीं है। मुनिराज चाहे मिथ्यात्व की वृद्धि के आशय के बिना 'श्राद्ध आदि मृतभोजन कर्तव्य है?' ऐसा प्रयोग करे, मगर लोग को तो यह मालुम नहीं है कि 'मुनिराज किस अभिप्राय से बोलते हैं?' लोग तो शब्द के अनुसार जरूर यही समझेंगे कि - मुनिराज को भी मृतभोजन आदि में कर्तव्यता अभिमत है। अतः अवश्य ये करने चाहिए बाद में मुनिराज लोगों को अपना शुद्धाशय बताने के लिए क्या घर घर पर जाएँगे? अब पछतावे होत क्या? जब चिड़ियाँ चुग गई खेत! व्यवहारतः तादृश वचन प्रयोग मिथ्यात्व एवं उन्मार्ग का समर्थक होने के कारण वृद्ध पुरुषों से निषिद्ध है - यह मुनासिब ही है।
* अप्रीतिकर वचन प्रयोक्तव्य नहीं है * तथा स्ते. इति। तथा चोर जब राजपुरुष आदि से पकडा जाए और फाँसी के मंच पर जा रहा हो तब नूतन दीक्षित आदि से कर्मविपाक बताने के लिए और संयम में स्थिरता के लिए, मंद ध्वनि से यह कहना चाहिए कि 'देखो, पाप कर्म का इस लोक में ही बूरा अंजाम, न मालुम परलोक में इसकी क्या हालत होगी? इस पणितार्थ को देखो।' ऐसा करुणा की बुद्धि से कथन करना चाहिए। चोर लोग धन के अर्थी होने के सबब अपने प्राणों की, जीवन की भी बाजी लगा देते हैं - यह पणितार्थ शब्द का अर्थ है। इस सांकेतिक शब्द के प्रयोग से नूतन दीक्षित को बूरे कर्मविपाक का ज्ञान होने से ज्वलंत वैराग्य और अनूठा संवेग प्राप्त होता है।
न तु वध्यो. इति। मगर फाँसी के मंच पर लिये जाते चोर को देख कर 'यह वध्य हैं - मारने योग्य है' ऐसा कथन नहीं करना चाहिए क्योंकि मुनिराज के मुँह से उस वचन को सुन कर राजपुरुषों को मन ही मन यह निश्चय हो जाता है कि - 'जरूर इसने बहुत बड़े अपराध किये हैं, इसी सबब तो संसार के त्यागी मुनिराज भी इसको मारने योग्य बताते हैं। अतः जरूर इसे मार डालना ही चाहिए'। बेचारा निराधार चोर मुनिराज के वचन से मारा जाए तो क्या मुनिराज पर इसका दोष न आएगा? संभव है कि राजपुरुषों की तरह चोर भी साधु महाराज का वचन सुन ले और उसे साधु भगवंत से द्वेष-अप्रीति आदि हो जाए। फिर तो जैसे जिनदास श्रेष्ठी को उपकार एवं प्रेम के सबब बचाने के लिए स्वर्ग में से चोरदेव आया था वैसे अपशब्दों से उत्पन्न द्वेष के सबब चोर (यदि वह व्यंतर आदि देवगति में गया हो तो) देव मुनिराज को मारने के लिए भी यहाँ आ सकता है। तब कैसी हालत होगी मुनिराज की? अतः वध्य आदि शब्द का प्रयोग करना मुनिराज के लिए निषिद्ध है।
* जरूरत हो तब शास्त्रीय सांकेतिक शब्द का प्रयोग कर्तव्य है * तथा साधु इति । तथा मुनिराज जब नदी पार करने के या नदी के पास में स्थंडिल आदि कार्य की समाप्ति के बाद वापस लौटते हो उस वक्त सामने से आते हुए साधु भगवंत उसे प्रश्न करे कि 'नदी कैसी है?' अर्थात् साधु भगवंत के प्रश्न का तात्पर्य यह है कि 'हमें नदी के दूसरे तट पर जाना है। यदि पानी कम हो या नदी में अवतरण का स्थान (=तीर्थ) अच्छी हालत में हो
१ 'तेणकमवि अणुकम्पापुव्वं सेहातिथिरीकरणत्थं' एवं पावकम्मिणं विपाक इह, परत्थ य अयोगगुणत्ति' सणियमुवदिसेज्जा' इति अगस्त्यसिंहकृतप्राचीनतमचूर्णी १७४ तमे पृष्ठे।