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* स्वमतिकल्पितशुद्धेरप्रामाण्यप्रतिपादनम् *
३११ सङ्कीर्णादौ 'सङ्खडी' इत्येव वदेत् न तु 'पित्राद्यर्थ कार्या इयं क्रिया' इति वदेत् मिथ्यात्वोपबृंहणदोषप्रसङ्गात् ।
तद्भावेना-प्रयोगेऽपि तदुपबृंहकत्वेन तत्प्रयोगे निषिद्धाचरणात् । करणिज्जमेयं जं पियकारियं देवकारियं वा किज्जइ एवमादि' (द.वै.जि.चू.पृ.२५७) मिथ्यात्वोपबृंहणदोष इति । एतच्चोपलक्षणमाज्ञाभङ्गविराधनादेः।
ननु यत्र न मिथ्यात्वोपबृंहणाभिप्रायेणापि तु साधुनिवारणाद्यभिप्रायेणैव 'पित्रादिनिमित्तकर्तव्या तत्र वर्ततेऽतो न तत्र गन्तव्यम्' इत्युच्यते तत्र को नाम दोषः येन तत्प्रयोगो निषिध्यते? इत्याशङ्कायामाह तद्भावेनाऽप्रयोगेऽपि मिथ्यात्वोपबृंहणाशयप्रयोज्यवाक्प्रयोगाभावेऽपि, तादृगभिप्रायप्रयुक्तत्वे वचनप्रयोगस्य तु सुतरां मिथ्यात्वोपबृंहकत्वेन निषिद्धत्वमित्यपिना ध्वन्यते। तत्प्रयोगे निषिद्धाचरणादिति कृत्यादिप्रयोगरूपस्याऽऽचरणस्य निषिद्धत्वादित्यर्थः, यद्वा भावप्रधाननिर्देशात् सङ्खडीविषयककृत्यादिप्रयोगे निषिद्धत्वस्य आचरणात् व्यवहारात्, वृद्धैरिति शेषः।
अयं भावः यतिमधिकृत्य हेतु-स्वरूपानुबन्धशुद्धिप्रतिपूर्णव्यवहारस्यैवौत्सर्गिकविधायकवचनविषयत्वमनुमतम् । यत्र चोद्देशस्य सुन्दरत्वेऽपि अनुबन्धतोऽशुद्धत्वं न तत्र विधेयत्वम्, यथाऽऽजीविकमताभिमतहिंसादौ । इत्थमेव परतीर्थिकपरिगृहीत-जिनप्रतिमावंदनादेनिषिद्धत्वं तत्र तत्रोक्तमुपपद्यते। प्रकृते चानुबन्धतोऽशुद्धत्वेन सङ्खडी-विषयककृत्यादिवचनस्य निषेधविषयत्वमेव । एतेन मिथ्यात्वपोषणाशयस्यैव निषिद्धत्वमस्तु न तु तादृग्वचनस्य, तस्य सदाशयपूर्वक त्वादिति प्रत्युक्तं, स्वमतिविरचितशुद्धेरप्रामाणिकत्वाच्च। तदुक्तं पञ्चवस्तुके 'जो पुण अविसयगामी, मोहा सविअप्प
ओ सद्धो। उवले व कंचणगओ सो तम्मि असद्धओ भणिओ।। (पंचव.६०६) यत्र तु गीतार्थानां सपयुक्तत्वेऽपि प्रवृत्तिपूर्वं दोषो न प्रतिसन्धीयतेऽपि तु महागुणलाभ एव, तथाविधप्रवृत्त्यनन्तरं चाकस्मिको दोषोपनिपातः सञ्जायते तत्र ते दोषभाजो न भवन्ति । इत्थमेव "परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगझरियसाराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं।। (ओ.नि.७६१) इति ओघनियुक्तिवचनमपि सङ्गच्छते, अन्यथातिप्रसङ्गादिति दिव्यदृशा निभालनीयोऽयमागमपन्थाः।
* संखडी-स्तेनादि विषयक वचनविधि * विवरणार्थ :- जिस समूहभोज या प्रकरण में अनेक जीवों का वध होता हैं, खंडन होता हैं उसे संखडी कहते हैं। लोक में पिता आदि के मरण के बाद दर साल जो श्राद्ध होता है या देवता आदि को खुश करने के लिए बलिदान आदि प्रसंग में जो समूहभोज होता है उसमें अनेक जीवों का संखंडन = व्यापादन होने से उस समूह भोज आदि को संखडी कहते हैं। जब साधु भगवंत गोचरी आदि के लिए बाहर जा रहे हो तब वे संखडीवाले गृह के मार्ग की दिशा में, जो समूहभोज होने के सबब आदमिओं से व्याप्त = संकीर्ण हैं, गोचरी आदि के लिए न जाए इसलिए ऐसा कथन करना चाहिए कि - 'आज वहाँ संखडी हैं। अतः वहाँ मत जाईएगा'। मगर 'पिता, देवता आदि के प्रीतिसंपादनार्थ कर्तव्य मृतभोजन आदि होने से आज वहाँ मत जाना' 'प्रीतिसंपादनार्थ यह कर्तव्य है'। - इत्यादि कथन मुनिराज नहीं कर सकते हैं, क्योंकि इस कथन के श्रवण के सबब श्रोता को मृतभोजन आदि में कर्तव्यता की बुद्धि की उत्पत्ति-स्थिरता-वृद्धि आदि होने से मिथ्यात्व का पोषण होता है। जिस कथन से उन्मार्ग का समर्थन हो वह कथन त्याज्य है। अतः मुनिराज के लिए संखडी में कर्तव्यता का प्रतिपादक वचन बोलना निषिद्ध है।
शंका :- साधु भगवंत अत्यंत निर्मल समकितवाले होने के सबब कभी भी मिथ्यात्व की वृद्धि-पुष्टि के आशय से तादृश वचन प्रयोग करे - यह तो कथमपि संभव नहीं हैं। लोक जिसे कर्तव्य समझते हैं उसे उस दृष्टि से कर्तव्य कहने में साधु भगवंत मिथ्यात्व का समर्थन करने के जिम्मेदार नहीं होते हैं, क्योंकि मुनिराज का आशय तो शुद्ध है। अतः मुनिराज के लिए तादृश वचन का निषेध करना नामुनासिब है। भाव के अनुसार कर्मबंध होता हैं, द्रव्य के अनुसार नहीं। तंदुलिया मत्स्य का उदाहरण मालुम है न?
* व्यवहारशुद्धि के बिना सिर्फ आशयशुद्धि से दोषमुक्ति नहीं है * समाधान :- तदभावेन, इति । आपको यह किसने सिखा दिया कि - सिर्फ भाव के अनुसार ही कर्मबंध होता है, द्रव्य के