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३१० भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९२
० सङ्खडीव्युत्पत्तिप्रदर्शनम् ० सजाततन्दुलादिसारा इत्यर्थः। इत्येवमादिविधिः । पक्वाद्यर्थयोजना-तदाक्षेपपरिहारास्तु प्राग्वत् ।।९१।। किञ्च
'संखडी-तेण-नइओ, संखडीपणियट्ठसुबहुसमतित्था।
भासेज्जा पओयणओ, ण कज्ज-हंतव्व-सुहतित्था।।९२ ।। सङ्खड्यन्ते प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा सखडी = पितृदेवताद्यर्थभोजनक्रिया, तां प्रयोजने साधुकथनादौ
पक्वाद्यर्थयोजनेति। प्ररूढबहुसम्भूतपदाभ्यां पक्वार्थ उक्तः, स्थिरशब्देन नीलार्थः प्रोक्तः, उत्सृतपदेन भर्जनयोग्यार्थः प्रतिपादितः, गर्भितवचनेन छविपृथकखाद्यार्थी निरूपितौ। प्रसूतससाराभिधानाभ्यां लवनयोग्यार्थः प्रदर्शितः । तदाक्षेपरिहारास्तु प्राग्वदिति। अधिकरणादिदोषतादवस्थ्याक्षेपाः साक्षादधिकरणदोषापादकप्रवृत्तिजनकवचननिषेधविधिविशुद्धाशयप्रयुक्तसप्रयोजनभाषणादिपरिहाराः फलविषयकप्रदर्शितवाग्विधिवत्, अवगन्तव्या इति शेषः। सुज्ञेयत्वान्नेह प्रदर्श्यन्ते।। ९१।।
सङ्खड्यन्ते ताड्यन्ते विराध्यन्ते, प्राणिनां वनस्पत्यादिरूपाणामायूंषि यत्र श्राद्धादिप्रकरणक्रियायां सा सङ्खडी पुरःपश्चादादिभेदभिन्ना । साधुकथनादाविति। निवारणाद्यभिप्रायेण साधुकथनादावित्यर्थः, उत्सर्गत आत्मसंयमविराधनादिदोषात् सङ्खडीगमनस्य निषिद्धत्वात् । तदुक्तं निशीथे 'दुविहाऽवाता उ विहे, वुत्ता ते होज्ज संखडीए तु । तत्थ दिया वि न कप्पति किमु राती एस संबंधो ।। (नि.९९१) __ न तु पित्राद्यर्थमिति। तदुक्तं चूणा 'ण एवं वत्तव्वं जहा किच्चमेयं जं पितीण देवताण य अट्ठाए दिज्जइ, है। पक्वादि अर्थ की योजना अर्थात् प्ररूढ आदि में से किस शब्द से पक्व आदि में से किस अर्थ का गौणरूप से बोध होता है? या पक्व आदि में से किस स्थान में प्ररूढ आदि में से किस शब्द का प्रयोग प्रयोजनवश करना? यह निम्नोक्त कोष्टक से सुज्ञ वाचक अच्छी तरह समझ सकेंगे।
* औषधि में पक्वादि अर्थ योजना *
प्रयोजनवश वाच्य पक्व
प्ररूढ या बहुसंभूत नील
स्थिर भर्जनयोग्य
उत्सृत छविमती या पृथुकखाद्य
गर्भित लवनयोग्य
प्रसूत या संसार तथा वनस्पति के फलविषयक वचनविधि में जो (परंपरा से भी सावद्य प्रवर्तक होने से अधिकरण आदि दोष तादवस्थ्य आदि की शंका =) आक्षेप और परिहार (= साक्षात् दोषजनक वचन ही निषेध का विषय है, परंपरा से दोषापह वचन नहीं इत्यादि समाधान) बताए गए हैं वे आक्षेप और परिहार औषधी के विषय में भी समानरूप से लागू पडते हैं। इसलिए फिर से यहाँ उन्हें न दोहराते हुए विवरणकार उनका अतिदेश करते हैं अर्थात् फलविषयक वचनविधि में प्रदर्शित शंका और समाधान का यहाँ
औषधीविषयक वचनविधि में वैसे ही अनुसन्धान करना चाहिए। सिर्फ फल की जगह 'औषधी' शब्द को अभिषिक्त कर के ही सुज्ञ पाठक वे शंका-समाधान स्वयं समझ सकते हैं। इसलिए हम भी विवरणकार के मार्ग का अनुसरण कर के यहाँ उन शंका-समाधान का पुनः उल्लेख करना नामुनासिब समझते हैं। महाजनों येन गतः स पन्थाः ।।९१।।
फल-औषधीविषयक वचनविधि को बता कर अब प्रकरणकार ९२ वीं गाथा से संखडीआदिविषयक भाषणविधि को बता रहे हैं।
गाथार्थ :- संखडी, चोर और नदी के विषय में, प्रयोजन उपस्थित होने पर, यथाक्रम संखडी, पणितार्थ और सुबहुसमतीर्थ शब्द प्रयोक्तव्य हैं मगर कर्तव्य, हंतव्य और सुतीर्थ शब्द अवाच्य हैं।।९२।।।
१ संखडी-स्तेन-नदीः संखडी-प्रणीतार्थ-सुबहुसमतीर्थाः । भाषेत प्रयोजनतो न कार्या हन्तव्या सुखतीर्था । ।९२ ।।
अवाच्य