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३०८ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त. ५. गा. ९१ ● शुद्धाशयप्रयुक्तवचनानां कदाचिदोषजननेऽपि निर्जराहतुत्वसिद्धिः o निषेधविषयत्वात् । ततः प्रकृते किमायातमित्याशङ्कायामाह - प्रकृते त्विति । शुद्धाशयेन = अधिकरणादिदोषनिरासानुकूलशास्त्रोक्तशब्दप्रयोगप्रतिसन्धानरूपयतनापरिणामेन, कारणतः = मार्गदेशनादिप्रयोजनमवलम्ब्य कथञ्चित्परकीयकुप्रवृत्त्या = पौनःपुन्येन विशेषविमर्शेण औत्पत्त्यादिबुद्धिपाटवस्वार्थबाहुल्यादिना वा गृहस्थादेः सावद्यप्रवृत्त्या दोषाभावात् = परकीयमतिपाटवादिना परकीयकुप्रवृत्तिं प्रति साधुवचनस्योपक्षयात् न दोषः । न चैवं पक्वादिवचनेऽपि तथात्वं स्यादिति वाच्यम्, तत्रानायुक्तपरिणामस्य कर्मबन्धहेतोः सद्भावेन न परकीयबुद्ध्यादिना तदुपक्षयः ।
विपक्षे बाधमाह अन्यथेति । विधिविशुद्धपरिणामेन सति प्रयोजने शास्त्रोक्तदिशा भाषणादिप्रवृत्तेः दुष्टत्वाभ्युपगमे इत्यर्थः। अतिप्रसङ्गादिति प्रस्तुतविषयादन्यत्रानिष्टप्रसञ्जनात्। स्थापनासत्य-व्यवहारसत्यादेरपि दुष्टत्वप्रसङ्गात् यथोक्तार्थबाधात्। यद्वा सदालयाद्यागमोक्तलिङ्गेन भावयतित्वमनुमाय द्रव्यलिङ्गिनि यतिपदप्रयोगस्यापि सदोषत्वोपनिपातः स्यात् यथाविकल्पितार्थायोगात् । न च तत्र विधिविशुद्धाशयसत्त्वान्न दोषः, अन्यथा व्यवहाराभावपत्तेरिति वाच्यम् प्रकृतेऽपि समसमाधानत्वात् । न केवलं दोषाभावः किन्तु साधोः साध्वन्तरं प्रति मार्गदर्शनादिना परोपकारादिगुणवृद्धिभावात्, असङ्क्लेशपरिणामात्, अशठभावाच्च महानिर्जरैव ।
नहीं है, जो परंपरा से किसी भी सावद्य प्रवृत्ति का निमित्त न हो। खुद तीर्थंकर परमात्मा की धर्मदेशना भी ३६३ पाखंडी के भवभ्रमण की हेतु बनती है । वर्त्तमान में भी ऐसे लोग दीखने में आते हैं जो कि बड़े आचार्य भगवंत व्याख्यान में जितनी कहानी सुनाते हैं वह नंबर वर्ली-मटके में लगाते हैं। अब आप ही बोलिए, 'कौन सा वचन या कौन सी प्रवृत्ति ऐसी है जो परंपरा से भी किसी खराब प्रवृत्ति का निमित्त न हो? यदि परंपरा से भी सावद्य प्रवृत्ति का जनक वचन निषिद्ध हो तब तो दीक्षा के बाद जीवनपर्यन्त मौन का ही पालन करना होगा, जिसमें अनेक दोष हैं, जो इस प्रकरण के उपोद्घात में विवरणकार ने बताए हैं।
* विधिविशुद्ध परिणाम से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार कहा गया वचन नितांत निर्दोष *
प्रकृते इति । अब प्रस्तुत विषय के उपर हम पाठकों को ले चलते हैं। प्रस्तुत में फल और औषधी के विषय में पक्व आदि शब्दों का प्रयोग इसलिए निषिद्ध है कि वे साक्षात् सावद्यप्रवृत्तिजनक होते हैं। यदि मार्गप्रदर्शन आदि प्रयोजन उपस्थित होने पर अधिकरणादि दोषों से बचने के आशय से शास्त्रप्रतिपादित असमर्थ आदि शब्दों का प्रयोग साधु महाराज करे तो वे दोष के भागी नहीं होते हैं। मगर उस वचन को सुन कर अपनी बुद्धि या प्रतिभा के बल पर पक्वादि अर्थ को जान कर गृहस्थ फल तोडना आदि सावद्य प्रवृत्ति करे तब भी मुनिराज सावद्यप्रवर्त्तन आदि दोष के भागी नहीं होते हैं, क्योंकि उस कुप्रवृत्ति में मुनि का वचन कारण नहीं है किन्तु उसके प्रति श्रोता की विशिष्ट प्रतिभा आदि निमित्त होते हैं। भगवंत तो अधिकरणादि दोषों के वर्जन के अभिप्राय से संपन्न हैं और शास्त्र से प्रतिपादित विधि के अनुसार प्रयोजनवश बोलने की प्रवृत्ति करते हैं। हाँ, यदि पहले से यह ख्याल में आ जाए कि 'फल की पक्वता आदि को जान कर यह फलत्रोटन आदि आरंभ करेगा ऐसा संभव है तब उस के सामने प्रत्यक्ष में तादृश वचन का प्रयोग न करना चाहिए। या अति आवश्यकता हो तो जल्दी से मन्द शब्द का प्रयोग कर सकते हैं, जो उस गृहस्थ के सुनने में न आये। मगर वैसा ख्याल में न आवे या वह गृहस्थ छूप कर साधु भगवंत की बात को सुन ले और फल खाने की प्रवृत्ति आदि करे तब भी मुनिराज दोष से मुक्त रहते हैं, क्योंकि वे विशुद्ध आशय से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार असमर्थ आदि शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। यदि ऐसा न माना जाय अर्थात् 'निर्ग्रथ प्रयोजनवश विशुद्ध परिणाम से उस शास्त्रोक्त वचन का प्रयोग करे, जिसके पूर्व में भावी में होनेवाले दोषों से वह निर्ग्रथ बेखबर है और गृहस्थ उस वचन को सुन कर अपनी बुद्धि के बल से अर्थ को पहचान कर सावद्य प्रवृत्ति करे तब मुनिराज के सिर पर अधिकरणादि दोष की जिम्मेदारी अवश्य आती है' - ऐसा माना जाय तब तो अनेक प्रकार की आपत्तियाँ आने लगेगी। जैसे कि साधु भगवंत किसीसे करुणार्द्र हृदय में धर्मोपदेश देते हैं तब कोई श्रोता मुनिराज व्याख्यान के मंगलाचरण में जितने श्लोक बोलते हैं उनकी संख्या के अनुसार धंधा का सोदा करता है, एक ही शब्द मुनिराज जितनी बार बोलते है उस संख्या में जुआ खेलता है, उस नंबरवाली लोटरी लगाता है। अब आपके अभिप्राय के अनुसार तो सावध व्यापार में परंपरा से भी साधुमहाराज का वचन निमित्त बनने से साधु भगवंत को कर्मबंध होने की अनिष्ट आपत्ति