Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 337
________________ ३०६ भाषारहस्यप्रकरणे - स्त.५. गा. ९१ __० फलविषयक-कारणिकविहितवचनाविष्कृतिः ० प्रयोजने पुनः मार्गदेशनादौ असमर्थ-प्ररूढादिवचनं वदेत्। तथाहि असमर्था एते आम्रा फलान्यतिभारेण न शक्नुवन्ति धारयितुमित्यर्थः। फलपक्वार्थप्रदर्शनमेतदप्राधान्येनेति द्रष्टव्यम्। तथा 'बहुनिवर्तितफला एते' अनेन पाकखाद्यत्वार्थ उक्तः। तथा 'बहुसम्भूतफला एते' अनेन वेलोचितार्थः प्रदर्शितः। तथा 'भूतरूपा एते' अनेन टालार्थ उक्तः। न चैवमितोऽपि पुनः । 'निरुपघात्यनवद्यवचनसूचनार्थं पुनः शब्द उक्तः। असमर्थप्ररूढादीति। आदिपदं प्रत्येकमन्वीयते, द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं प्रत्येकमन्वीयते ( ) इति वचनात् । ततश्चाऽसमर्थादि-प्ररूढादिवचनमित्यर्थः । अस्य च यथाक्रमं फलौषध्योः सम्बन्धः। ततः फलविषयमसमर्थादिवचनं, औषधीविषयं प्ररूढादिवचनं वदेदिति फलितम। आम्रा इति। आम्रग्रहणं प्रधानवृक्षोपलक्षणम। ननु पक्वासमर्थयोः केवलं शब्दभेद एव न त्वर्थभेदः। ततः शब्दैक्यस्यानुपादेयत्वान्न पक्वपदप्रयोगे कश्चित् दोषः । दोषश्चेत्? असमर्थप्रयोगेऽपि स समः अर्थैक्यात्, अन्यथा अर्धजरतीयप्रसङ्गादित्याशङ्कायामाह- फलपक्वार्थप्रदर्शनमेतत् अप्राधान्येनेति । पक्वशब्देन यथा पाकार्थः फले शब्दतः साक्षात प्रतीयते तथा असमर्थशब्देन न प्रतीयते किन्त्वर्थतः 'पक्वानि फलानी'त्यत्र प्रकारतानाक्रान्तविशेष्यताविशिष्टनिरूपितविशेषणताऽऽख्यविषयता शब्दतः पाकार्थे प्रतीयते। 'असमर्थ आम्रा' इत्यत्र प्रकारताक्रान्तविशेष्यताविशिष्टनिरूपिता विशेषणताख्यविषयताऽर्थतः पाकार्थे प्रतीयते। अयं भावः यथा तत्र मुख्यविशेष्यतापन्ने पाकः शब्दातः प्रतिपाद्यते तथा न प्रकृते। आम्रपदस्य आम्रफलजनकवृक्षवाचकत्वेन वृक्षे शब्दप्रतिपादितस्य फलधारणाऽसामर्थ्यस्यानुपपन्नत्वात् वृक्षविशेषणतापन्ने फले पाकः प्रकृतेऽर्थतः प्रतीयते इति विशेषः ततः शब्दतः प्रतीयमानत्वं नाम विषयनिष्ठं प्राधान्यम् अर्थतः प्रतीयमानत्वं=अप्राधान्यमिति पर्यवसितार्थः। बहुनिवर्तितफला इति। प्रायो निष्पन्नफला वृक्षा इत्यर्थः । श्रीहरिभद्रसूरयस्तु - 'बहुनि निर्वतितानि=अबद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा' इति वदन्ति । पाकखाद्यत्वार्थ इत्यनन्तरमप्रधान्येनेति गम्यम् । एवमग्रेऽपि भावनीयम् । बहुसम्भूता इति । बहूनि सम्भूतानि-पाकातियशयतः ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा' इति श्रीशीलाङ्काचार्यप्रभृतयः । अगस्त्यसिंहाचार्यास्तु 'बहुसंभूताणि बहूणि फलाणि ण दुव्वायहयाणि तब्विहा बहुसम्भूता' (द. वै. अ. चू. पृ. १७३) इति प्राहुः । चूर्णौ तु 'बहुसम्भूया णाम बहुणिप्फन्नफलाणि' (द. वै. जि चू. पृ. २५६) इत्युक्तम्। __भूतरूपा इति। भूतानि रूपाणि अबद्धास्तीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा' इति श्रीहरिभद्रसूरिप्रमुखाः । प्राचीनतमचूर्णौ तु 'सुणिप्फत्तीए फल-रसादिसंपण्णा भूतरूपा' इत्युक्तम्। 'भूतरूपा णाम फलगुणोववेया' इति इसका अर्थ यह है कि पक जाने से, फलों का भार बहुत कुछ बढ़ जाने से ये पेड़ आम्रफलों को धारण करने में अशक्तिमान हैं। इस तरह पक्व फल का यानी फल की पक्वता का गौणरूप से कथन होता है। अर्थात् प्रयोजन उपस्थित होने पर जिन पेड़ के फल पक्व हो गए हैं उन पेड़ का असमर्थशब्द से व्यवहार करना चाहिए। इसी भाँति जिन पेड़ के फल पाकखाद्य (पका कर खाने योग्य) हैं उनको प्रयोजनवश बताना जरूरी हो तब बहुनिवर्तितफल शब्द का प्रयोग करना चाहिए। बहुनिवर्तितफल का अर्थ है इन पेड़ के फल प्रायः निष्पन्न हैं। वेलोचित के स्थान पर 'ये वृक्ष बहुसंभूत है' ऐसा बोलना चाहिए। जिन पेड़ के फल पक जाने के सबब तत्काल तोडने योग्य हैं वे पेड़ बहुसंभूतफल शब्द से बताये जाते हैं। तथा टाल (जिन फलों में गुठली नहीं पडी है) के स्थान में 'भूतरूप' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। ये फल अतिकोमल अवस्थावाले होते हैं वे भूतशब्द से वाच्य होते हैं। कोमल फलवाले पेड को सूचित करने के लिए 'भूतरूप' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। द्वैधक के स्थान में भी 'भूतरूप' शब्द का प्रयोग श्रीहरिभद्रसूरिजी को अभिमत है। यह तो स्पष्ट ही है कि - 'ये फल पक्व हैं, तोडने योग्य हैं, पका कर खाने योग्य हैं' इत्यादि वचन जैसे सावध प्रवृत्ति का निमित्त होता है वैसे 'ये पेड असमर्थ हैं, 'बहुनिवर्तितफलवाले हैं, बहुसंभूतफलवाले हैं, भूतरूप हैं' इत्यादि शब्द सावद्य प्रवृत्ति के निमित्त नहीं होते हैं। सावध प्रवृत्ति का निमित्त बनने की तो बात दूर रही मगर सामान्य गृहस्थ को तो 'ये साधु भगवंत इन साधु भगवंतों को क्या कहते हैं?' यह भी समझ में नहीं आता है। इस तरह सावद्यप्रवर्तन आदि दोष में १ दृश्यतां द.वै.अ.चू.पृ.१७३।

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