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* औषधीनिर्देशे मतान्तरप्रदर्शनम् *
प्रकृते तु शुद्धाशयेन कारणतो भाषणे कथञ्चित्परकीयकुप्रवृत्त्या दोषाभावात् अन्यथातिप्रसङ्गादिति दिक्।
औषधीनिर्देशेऽप्येवं वदेत् यथा- प्ररूढा एते बहुसंभूता वा निष्पन्नप्राया इत्यर्थः । स्थिरा वा निष्पन्ना इत्यर्थः । उत्सृता वा उपघातेभ्यो निर्गता इत्यर्थः । गर्भिता वा अनिर्गतशीर्षका इत्यर्थः । प्रसूता वा निर्गतशीर्षका इत्यर्थः । ससारा वा एतेन भगवतो देशना सावद्या भवाभिनन्दिजीवानां संसारवर्धकत्वात्, श्रीमतो महावीरस्य अनार्यदेशविहारो न युक्तः अनार्यजीवानामकुशलकर्मबन्धनिमित्तत्वात्, शिवभूतेः रत्नकंबलदारणं गुरोः संसारवृद्धिनिमित्तं आशाम्बरमतोत्थाननिमित्तत्वात्, गजसुकुमालस्य स्मशानगमनानुज्ञाऽनुचिता सोमिलभवभ्रमणनिमित्तत्वात्, अधुनातनं सर्वमुनिसंमेलनं नानुमोदनीयं सङ्घसङ्घर्षनिमित्तीभूतत्वादित्यादयः प्रलापाः परास्ताः भावोपकार-कर्मनिर्जरा-मूर्च्छास्फेटनकेवलज्ञानलाभ-नानामतविभिन्नप्रवृत्तिसंघाशांत्यादिनिराकरणोद्देशरूपविशुद्धाशयप्रयुक्तत्वात्, भवाभिनन्दिसंसारवृद्धयादेस्तु चिकित्सादौ पीडादेरिव यद्वा न्यायपालनादौ चौरशिक्षादेरिवाऽवर्जनीयसंनिधिरूपत्वात्, अतर्कितोपनीतयोः कुमतोत्थानसङ्घसङ्घर्षयोः पूर्वमनुपस्थितत्वात्, परकीयाभिनिवेशादिना तदुपक्षयाच्चेत्यादि समाकलितानेकान्तवादरहस्यैर्विमुक्ताभिनिवेशैः सूक्ष्ममीक्षणीयम् ।
प्ररूढा इति । 'प्रादुर्भूता इत्यर्थः । दशवैकालिकादौ प्रकृते रूढा इति पाठ उपलभ्यते । तदुक्तं रूढा बहुसंभूआ थिरा ओसढावि अ । गमिआओ पसूआओ ससराउ त्ति आलवे ।। (द.वै.७/३५) । क्वचिच्च विरूढा इत्यपि दृश्यते । तदुक्तं प्राचीनतमचूर्णी- 'विरूढा = अङ्कुरिता' । चूर्णौ च 'विरूढा णाम जाता' इत्युक्तम् । बहुसम्भूताइत्यादि । प्रकृते प्राचीनतमचूर्णौ तु 'बहुसम्भूता = सुफलिता' । जोग्गादिउवघातातीताओ = थिरा, सुसंवड्ढिता = उस्सडा, अणिव्विसूणाओ=गब्भिणाओ, णिव्विसूताओ = पसूताओ, सव्वोवघातविरहिताओ सुणिप्फण्णाओ = ससाराओ' (द.वै.अ. चू.पू. १७३) इत्येवं पाठः । चूर्णौ च 'बहुसंभूया णाम निष्पन्ना, थिरा णाम निब्भयीभूया, उवगया यत्ति उस्सिया भण्णंति, गब्भिया णाम जासिंण ताव सीसयं निप्फिडइत्ति, निप्फाडिएसु पसूताओ भण्णंति संसारातो णाम सह सारेण संसारातो सतंदुलाओत्ति वृत्तं भवइ (द.वै.जि.ची. पृ. २५७ ) इत्येवं व्याख्यातम् । तथाविधप्रसिद्धव्यवहाराश्रितास्त्रयोऽपि सदादेशा इति ध्येयम् ।
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आएगी। मगर ऐसा नहीं होता है। अतः यही मानना होगा की निषेध का विषय साक्षात् दोषजनक वचन ही है, परंपरा से दोषापादक वचन नहीं। इस विषय में अधिक विचार किया जा सकता है इस बात की सूचना देने के लिए विवरणकार ने दिग्शब्द का प्रयोग किया है। जिज्ञासु पाठक अधिक विचारविमर्श के लिए यहाँ मोक्षरत्ना देख सकते हैं।
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* औषधीविषयक वक्तव्य वचन *
औषधी. इति । फल की भाँति औषधी के विषय में पक्वादि शब्द का प्रयोग अकर्तव्य है। आवश्यकता होने पर प्ररूढ आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। वह इस तरह 'ये चावलादि प्ररूढ है' अर्थात् ये औषधी निष्पन्न हो गई है, तैयार हो चूकी है। इससे
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पक्वार्थ का गौणरूप से कथन होता है। तथा 'ये बहुसंभूत है'। बहुसंभूत का अर्थ है निष्पन्नप्रायः । तथा 'ये स्थिर है' अर्थात् 'ये निष्पन्न है' तथा 'ये उत्सृत है' अर्थात् 'ये उपघात से मुक्त है'। जब चावल आदि के छोड स्तम्भ के रूप में आगे बढता है तब उसे 'उत्सृत' कहते हैं, क्योंकि तब वे पक्षी आदि के चंचुपात आदि से नष्ट या म्लान नहीं होते हैं। जब आरोह पूर्ण हो जाता है, चावल आदि तैयार हो जाते हैं मगर उनका भुट्टा निकलता नहीं है वह अवस्था 'गर्भित' शब्द से यहाँ अभिप्रेत है। भुट्टा निकलने पर उनमें 'प्रसूत' शब्द का व्यवहार करना चाहिए। चावल आदि दाने पड जाने पर उन्हें 'संसार' कहते हैं। प्ररूढ आदि शब्दों के अर्थ के बारे में दोनों चूर्णिकार, टीकाकार आदि में कुछ मतभेद दृष्टिगोचर होता है। आशय यह है कि पक्वादि शब्दों को प्रयोग होने पर श्रोता जैसे औषधीत्रोटन आदि में प्रवृत्त होता है वैसे प्ररूढ आदि शब्दों को सुन कर आरंभ में प्रवृत्त नहीं होता है, क्योंकि पक्वादि शब्द से पक्वता का कथन मुख्यतया = साक्षात् होता है और प्ररूढ आदि शब्द से गौणरूप से पक्वता का निरूपण होता है। इस तरह 'प्रयोजन उपस्थित होने पर पक्वादि शब्द के स्थान में प्ररूढ आदि शब्द का प्रयोग कर्तव्य है' - 'यह आगनोक्त विधि
१ दृश्यतां द.वै.७/३४ हा. टी. ।