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* साक्षादधिकरणादिदोषजनकवचनानां निषिद्धत्वम् *
प्रागुक्तार्थप्रतीतिपूर्वकप्रवृत्तौ अधिकरणादिदोषप्रसङ्ग इति वाच्यम्, 'साक्षादधिकरणदोषप्रवृत्तिजनकवचनस्यैव निषिद्धत्वात् । चूर्णिकारः । तदुक्तम् 'असंथडा इमे अंबा बहुनिव्वडिमा फला । वइज्ज बहुसंभूआ भूअरूवत्ति वा पुणो ।। (द. वै. ७/ ३३) मकारस्त्वलाक्षणिकः ।
ननु द्वैधिकार्थो न केनापि शब्देनोक्तः । तथा च न्यूनता स्यात्, मैवम्, टालशब्दस्योपलक्षणत्वात् द्वैधिकार्थोऽनेनोपलक्षितः । तदुक्तं श्रीहरिभद्रसूरिप्रभृतिभिः 'अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षितः' (द. वै. ७/३३ हा. वृ./आचा.२/४/२१३८सू.वृ.)। 'टालद्वैधिकयोः परस्परं सम्बन्धित्वमिति केचित् ।
व्युत्पन्नश्रोतुः असमर्थादिसाधुवचनं श्रुत्वाऽर्थतः पक्वाद्यर्थप्रतीतिः जायत एव । तादृशप्रतीतेश्च फलच्छेदनादिप्रवृत्तौ सत्यामधिकरणादिदोषोपनिपातश्च तदवस्थ एवेति घट्टकुट्यां प्रभातमित्याशयं निराकर्तुमुपक्रमते- न चैवमिति । इतोऽपि = असमर्थादिवचनतोऽपि प्रागुक्तार्थप्रतीतिपूर्वकप्रवृत्तौ पक्वाद्यर्थावबोधप्रयोज्यप्रवृत्तौ सत्यां, अधिकरणादिदोषप्रसङ्गः, सावद्यप्रवर्त्तनादिना हेतुनेति गम्यम् ।
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तन्निराकरोति- साक्षादिति । प्रकृते साक्षात्त्वं चानुक्तपदार्थाप्रतियोगिकत्वे सति उद्दिष्टपदार्थप्रतियोगिकत्वम् । अधिकरणदोषप्रवृत्तिजनकवचनस्यैवेति । स्वजनकत्वसम्बन्धेन सावद्यप्रर्वत्तनात्मकाधिकरणाख्यदोषविशिष्टाया प्रवृत्तेः जनकं यद् वचनं तस्यैव। एवकारेण परम्परयाऽधिकरणदोषोपेतप्रवृत्तिजनकवचनस्य व्यवच्छेदः कृतः । निषिद्धत्वात् :
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साधु जिम्मेदार नहीं बनते हैं और अपने प्रयोजन की भी सिद्ध होती है। साँप न मरे और लाठी भी न तूटे- ऐसा अनुपम मार्ग साधु भगवंत के लिए तीर्थंकर - गणधरादि भगवंतों से प्रदर्शित किया गया है। फल के सम्बन्ध में वक्तव्य और अवक्तव्य वचनों का संक्षेप में बयान निम्नोक्त रीति से हो सकता है। गौर से देखिये,
फलसम्बन्धी वाणीविभाग
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प्रयोजनवश वक्तव्य
पेड फल का भार ढोने में असमर्थ हैं।
पेड बहुनिर्वर्त्तित फलवाले हैं।
पेड़ बहुसंभूत फलवाले हैं।
पेड़ भूतरूप (कोमलफलवाले) हैं। पेड़ भूतरूप हैं।
अवक्तव्य
फल पक्व हैं।
फल पाकखाद्य हैं।
फल वेलोचित हैं।
फल टाल हैं।
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फल द्वैधक हैं।
शंका :- न चैव इति । यह बात ठीक है कि सामान्य श्रोता, जो अपने दिमाग का अच्छी तरह उपयोग नहीं करता है, असमर्थ आदि शब्द सुन कर फल तोड़ना इत्यादि सावद्य कार्य में प्रवृत्त नहीं हो सकता है, मगर जो श्रोता अक्ल का पुतला है उसे तो मालुम हो ही जायेगा कि 'पेड के फल पक्व होने के सबब ही पेड़ उनके भार को ढोने में समर्थ नहीं हैं। अतः इन फलों को तोड कर खाना चाहिए, अन्यथा वे नष्ट हो जाएंगे। यह निश्चय होते ही वह सावद्य प्रवृत्ति करे तब तो सावद्यप्रवर्त्तनरूप अधिकरण दोष से साधु भगवंत को तो कर्मबंध होगा ही। जिस दोष को छोडने के उद्देश से पक्व आदि के स्थान में असमर्थ आदि शब्द का प्रयोग किया फिर भी अधिकरणादि दोष से अपने को साधु भगवंत नहीं बचा सकेंगे। स्वर्ग में जाने पर भी गधे को कुम्हार मिल ही गया । * साक्षात् अधिकरणदोषावह वचन ही निषिद्ध है *
समाधान :- साक्षाद. इति। आपकी दहशत ख्याल में आते ही हम समझ गए हैं कि आप गुमराह हैं, शास्त्र के तात्पर्य से अनजान हैं। शास्त्र में जो वचन बोलने के लिए निषिद्ध हैं वे वचन साक्षात् अधिकरणदोषयुक्त प्रवृत्ति के जनक वचनस्वरूप ही है । अधिकरणादिदोषसंपन्न प्रवृत्ति का परंपरा से प्रयोजक वचन बोलने का शास्त्र में निषेध नहीं किया गया है, क्योंकि वैसा कोई वचन
१ 'णत्वादिप्र.' इति मुद्रितप्रतौ पाठः ।