Book Title: Bhasha Rahasya
Author(s): Yashovijay Maharaj, 
Publisher: Divyadarshan Trust

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Page 345
________________ ३१४ भाषा रहस्यप्रकरणे स्त. ५. गा. ९३ o नदीविषयकनिषिद्धभाषायां दोषावेदनम् O वदेत्, साधुवचनतोऽविघ्नप्रवृत्तिधिया निवर्त्तितुमुद्यतानामप्यनिवृत्तिप्रसङ्गात् । 'कायपेयाः' इति सूत्रपाठान्तरे तु 'प्राणिपेयाः' इत्यर्थान्नातिविशेष इति ध्येयम् । तता नौभिः = द्रोणिभिः तरणीयाः =तरणयोग्या इत्यादि न वदेत्, अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । तथा प्राणिपेयाः = तटस्थ - जन्तुपानीयपानीयाः वा इत्यपि न वदेत्, तथैव प्रवर्त्तनादिदोषात् । स्वयमेवाऽन्यप्रेरणया वा नदीतरणादौ प्रवृत्तः सन् तथाविधसाधुवचनश्रवणतः निवर्तेत इत्यर्थः । निवृत्त्यादीति । आदिशब्देनापशब्दबुद्ध्या साधुप्रद्वेषादेः परिग्रहः । नातिविशेष इति । यदेव प्राणिपेयाशब्देन वक्ष्यमाणेन प्रतिपाद्यते तदेव कायपेयाशब्देनेत्यर्थः। प्राचीनतमचूर्णो त्वत्र - तडत्थितेहिं काकेहिं पिज्जंति = काकपेज्जा तहा णो वदे । केसिंचि 'कायतेज्ज' त्ति, ताओ पुण णातिदूरतारिमाओ । दूरतारिमाओ णावाहि तारिमाओ" (द.वै.अ.चू. पृ. १७४) इत्युक्तमिति ध्येयम् । अन्यथा विघ्नशङ्कया तत्प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । नावं विना प्रवृत्तौ प्रवाहनादिविघ्नाशङ्कया द्रोणिग्रहण - प्रक्षेपादिप्रवृत्तिप्रसङ्गादित्यर्थः। तटस्थजन्तुपानीयपानीया इति । तटे स्थितानां जन्तूनां पानीयं=गलबिलाधः संयोगानुकूलव्यापारोचितं पानीयं =जलं यासां तास्तथा । प्राचीनतमचूर्णौ तु प्रकृते 'तडत्थेहिं हत्थेहिं पेज्जा = पाणिपेज्जा । काकपेज्जापाणिपेज्जाण विसेसो तडत्थकाकपेज्जाओ सुभरिताओ, बाहाहिं दूरं पाविज्जंति त्ति पाणिपेज्जा, किंचिदूणा' (द.वै.अ.चू. पृ. १७४) इत्युक्तमित्यवधेयम् । प्रवर्त्तनादिदोषादिति । पशुपाननदीतरणप्रवर्त्तनादिदोषप्रसङ्गादित्यर्थः । आदिशब्देन काष्ठबस्त्यादिग्रहण-प्रक्षेपादेः ग्रहः । पार करने के लिए प्रवृत्त गृहस्थ साधु के वचन से वापस लोट जाय-यह संभावना हैं। साधु को ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए कि जिससे नदी पार करने को प्रवृत्त वापस लोटे, क्योंकि वैसा होने से उसके कार्य में व्याघात होता है, उसकी रोजगारी नौकरी आदि में दिक्कत पैदा होती है। तथा नदी शरीर के द्वारा पार करने योग्य है' ऐसा वचन भी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि नदी पार करने में अप्रवृत्त या वापस लोटने में तत्पर मनुष्य भी साधु के वचन से- 'नदी पार करने में कोई विघ्न नहीं है, क्योंकि इसे मुनिराज ही शरीर के द्वारा पार करने योग्य बताते हैं - यह निश्चय हो जाने से नदी पार करने में वह उद्यत हो जाता है। सावद्य प्रवृत्ति का सिलसिला जारी रखने में निमित्त बने ऐसा शब्दप्रयोग करना साधु के लिए निषिद्ध है। जहाँ 'कायपेया' ऐसा पाठान्तर स्वीकृत किया गया है वहाँ तो आगे बताये जानेवाले 'प्राणिपेया' शब्द के अर्थ से कोई भेद नहीं है, क्योंकि प्राणिपेय का अर्थ है जिनके तट पर बैठे हुए प्राणी जल पी सके वैसी नदीयाँ और कायपेय का अर्थ भी यही है। अतः उक्त पाठान्तर विशेष अर्थवान् नहीं लगता । इस बात पर शांति से ध्यान देना चाहिए। तथा 'नदीयाँ नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं ऐसा भी नहीं बोलना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि तादृश वाक्य सुन कर श्रोता को दहशत होती है कि 'मैं तो शरीर से नदी पार करने के लिए तैयार हूँ मगर मुनिराज तो नौका के द्वारा नदी पार करने की बात करते हैं। अतः मुझे नौका ले कर ही नदी पार करना मुनासिब है, वरना नदी का जलप्रवाह मुझे खींच लेगा' इस तरह नौका के बिना नदी पार करने में विघ्न की शंका के सबब श्रोता गृहस्थ नौका को ले कर उसे पानी में डाल कर नदी पार करने में तत्पर हो यह भी मुमकिन है। तब साधु महाराज के वचन से नौका का लाना, उसका जलप्रवाह में डालना आदि अनेक सावद्य कार्य होने से साधु के सिर पर अधिकरण आदि दोष की जिम्मेदारी आती है। अतः तादृश वचनप्रयोग भी त्याज्य है। तथा 'नदी के तट पर बैठे हुए प्राणी उसका जल पी सकते हैं ऐसा वाक्य भी बोलना साधु के लिए निषिद्ध है, क्योंकि उस वाक्य को सुन कर गोपाल आदि अपनी अपनी धेनु, भैंस आदि को पानी पिलाने के लिए नदी पर ले आए - यह भी संभव है। देखिए, "आज-कल बारिस बहुत होने के सबब अपने क्षेत्र से अति दूर रही हुई नदी में अगर ज्यादा पानी रहेगा तब तो मेंढक आदि छोटे छोटे प्राणी को, जो नदी का पानी पीने के लिए जाएँगे, नदी अपने जलप्रवाह में खींच लेगी। अतः अभी नदी पर नहीं जाना चाहिए "ऐसा सोच कर शांति से बैठे रहे हुए गोपाल आदि भी साधु महाराज की "नदी प्राणिपेय हैं।" इस बात को सुन कर महात्मा की बात पर भरोसा कर के नदी पर पानी पाने के लिए अपने पशुगण को ले कर जाए तब स्पष्ट ही साधु महाराज सावद्य प्रवर्त्तन दोष के जिम्मेदार होते हैं। तथा यदि ज्यादा जल होने के सबब गोपाल को पशुसंपत्ति का नुकशान हो तब उसे महात्मा के उपर द्वेष आदि भी हो सकता है। गोपाल को ज्यादा नुकशान होने पर गलाटा आदि होना भी -

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