________________
* फलौषधीविषयकनिषिद्धवचननिरूपणम् *
३०५
एतादृशाननुमतभाषा भाषणे फलादिनिश्रितदेवताकोपः 'इत ऊर्ध्वमेतन्नाश एव प्रकारान्तरेणैतद्भोगो न शोभन' इत्यवधार्य गृहिप्रवृत्तौ अधिकरणादिदोषोपपातश्चेति ।
नीलाश्छवय इति वा वल्लचवलकादिफललक्षणा: (द. वै. ७/३४वृ.) प्रकृते च मतुब्लोपः कृतः धर्ममुखेन धर्मिप्रतिपादनपरत्वात् औषधीविशेषणत्वानभ्युपगमे वाकारस्याऽनुपपत्तिप्रसङ्गात्, वल्लचवलादिफललक्षणाः इत्यस्यानन्वयप्रसङ्गात्, 'तहेवोसहिओ पक्काओ नीलिआओ छवीइ अ । लाइमा भज्जिमाउत्ति, पिहुखज्जत्ति नो वए' (द. वै. ७/ ३४) इत्यत्रोत्तरार्धस्याऽलग्नतापत्तेश्चेति दिक् ।
छविमत्य इति । चूर्णौ च "छविग्गहणेण णिप्पवालिसंदगादीणं सिंगातो छविमंताओ" (द. वै. जि. चू. पृ. २५६ ) इत्युक्तम् । अगस्त्यसिंहसूरिमते तु पक्वादेः छविमतीविशेषणत्वमपि सम्भवति । तदुक्तं तैः 'छवीओ=संबलीओ णिप्फावादीणं ताओ वि पक्काओ नीलिताओ वा णो वदेज्जा' (द. वै. अ. चू. पृ. १७३) इति । आचारांगाभिप्रायेण तु पक्वादीनि सर्वाणि औषधीनां विशेषणानि प्रतीयन्ते- 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुसंभूयाओ ओसहीओ हा ताओ णो एवं वदेज्जा । तं जहा पक्काइ वा नीलीयाति वा छवीइयाइ वा लाइमाइ वा भज्जिमाइ वा बहुखज्जाइ वा एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव णो भासेज्जा' (आचा. २/४/२-१३८) इति सूत्रपर्यालोचनात् ।
लवनयोग्या इति । प्रकृते च 'लायिमाः = लाजायोग्या रोपणयोग्या वा' ( आचा. २/४/२-१३८) इति श्रीशीलाङ्काचार्याभिप्रायः । भर्जनयोग्या इति अपक्वचणकादिः । प्रकृते च 'भज्जिमाउत्ति पचनयोग्या भर्जनयोग्या वा' इति आचाराङ्गवृत्तिकृदभिमतम् । पृथुकखाद्या इति । अधर्मपक्वशाल्यादिषु पृथुकाः क्रियन्ते । आचाराङ्गवृत्तौ च 'बहुखज्जत्ति बहुभक्ष्याः पृथुककरणयोग्या वे'त्युक्तम् । प्राचीनतमचूर्णो च प्रकृते - कुंभेल्लसालिमाति पिहुखज्जा' (द. वै. अ. चू. पृ. १७३) इत्युक्तम् ।
अधिकरणादिदोष इति । तदुक्तं चूर्णौ- 'साहुणा भणियाओ त्ति काऊण थालीपागं करेज्जा एवमादिदोसा भवंति । 'आदिशब्देन लाघवादयो दोषा ग्राह्याः ।
जिसको गुजरात आदि राज्य में 'पोंक' कहते हैं। चावल आदि औषधी को इन शब्दों से बताना साधु के लिए नामुनासिब है ।
शंका :- आम आदि फल के और चावल आदि औषधी के विषय में पक्वादि शब्द का प्रयोग क्यों निषिद्ध है? यदि वे पक्व हैं तब उन्हें पक्व बताने में क्या दोष है, जिसके सबब सत्य भाषा होते हुए भी पक्वादि शब्दों का प्रयोग निषिद्ध है ?
* व्यवहारतः सत्य भाषा भी दोषयुक्त हो तो त्याज्य है *
समाधान :- एतादृश इति । व्यवहार से पक्वादि शब्द भले ही सत्य हो मगर उसका प्रयोग करना निषिद्ध है, क्योंकि तीर्थंकर गणधरादि भगवंत से वह अनुमत नहीं है। इसका सबब यह है कि 'ये फल पक्व हैं, तोडने योग्य हैं' इत्यादि शब्दों को सुन कर उन फल पर निश्रित अर्थात् उनका स्वामी व्यंतरादि देव उन फल की मूर्च्छा और आसक्ति के सबब उन शब्दों के प्रयोग करनेवाले साधु पर कुपित हो जाए यह संभव है। इसके अतिरिक्त अधिकरणादि दोष की भी संभावना है। वह इस तरह कि 'ये फल अतिपक्व हैं' इत्यादि साधुवचन सुन कर गृहस्थ सोचने लगता है कि 'अब इन फलों का उपभोग न होगा तब वे अवश्य नष्ट हो जाएंगे और अन्य ढंग से उनका उपभोग भी अच्छा न होगा। अतएव अभी इन फलों को तोड कर खाना चाहिए। यह निश्चय होते ही वह फलों को तोडना, खाना आदि सावद्य क्रिया में प्रवृत्त होता है, जिसका मूल है साधु का वचन । तब साधु के सिर पर सावद्यप्रवर्त्तनरूप अधिकरण दोष का भार आयेगा। इसके अलावा लाघवादि की भी संभावना रहती है। अतः पक्वादि शब्दों का प्रयोग तीर्थंकरादि से अनुज्ञात नहीं है।
प्रयोज. इति। यदि अन्य साधु भगवंत को मार्ग बताना इत्यादि प्रयोजन हो तब असमर्थ प्ररूढ आदि वचन का प्रयोग करना चाहिए। मार्ग बताने के लिए फल का ही मुख्यतया प्रतिपादन करना आवश्यक नहीं है, किन्तु तादृशफलवाले वृक्ष का प्रतिपादन करना जरूरी है। जैसे कि 'असमर्थ आम के पैड़ की दक्षिण दिशा में जो मार्ग है उस पर चलना' इत्यादि । 'असमर्थ आम के पेड़'