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* यथेच्छभाषिणो लाघवम् *
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वदेत्। एतादृशं वदतो हि साधोः तद्वनस्वामिव्यन्तरात् कोपादिः स्यात् । सलक्षणो वा वृक्षः इति कश्चिदभिगृहणीयात् अनियमितभाषिणो लाघवं वा स्यादिति ।
विश्रमण-तदासन्नमार्गकथनादौ कारणजाते च सति तान् जातिप्रभृतिगुणयुक्तान् वदेत् । तथाहि - उत्तमजातय एते वृक्षा अशोकादयः, दीर्घा वा नालिकेरीप्रभृतयो, वृत्ता नन्दिवृक्षादयो महालया वटादयः, प्रजातशाखाः, प्रशाखावन्तो दर्शनीया वेति । ९० ।। किञ्च,
'ण फलेसु ओसहीसु य, पक्काइवओ वए वयणकुसलो । असमत्थप्परूढाइ, पओअणे पुण वए वयणं । । ९१ । ।
पासायखंभाणं, तोरणाण गिहाण अ । फलिहऽग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ।। पीढए चंगबेरा अ नंगले मइयं सिआ । जंतलट्ठी व नाभी वा, गंडिया व अलं सिआ ।। आसणं सयणं जाणं हुज्झा वा किंचुवस्सए । भूओवघाइणिं भासं नेवं भासिज्ज पन्नवं ।।' (द. वै. ७ / २६...२९)
वृत्तिकृदभिप्रायेण दोषान् प्रदर्शयति एतादृशमिति । अनियमितभाषिणः = यथेच्छभाषिणः । लाघवमिति । अयं भावः यद्वा तद्वा भाषिणां यतीनां वाच्यार्थस्याऽतथाभावे श्रोतुः 'एते न किञ्चिज्जानन्ति मिथ्याभाषिण एते' इति विपरिणामेन लाघवं स्यात् । इतिशब्देन 'वृक्षलक्षणज्ञोऽयं साधुः' इति कृत्वा साधु वा गृह्णीयात् -
इत्यादिदोषाः
सूचिताः ।
विश्रमणं नाम श्रमापनयनम् । तदासन्नेति । वृक्षासन्नमार्गप्रदर्शनादौ । प्रशाखावन्तः = विटपिनः । तदुक्तं 'तहेव समझे बोलने की आदत है वह यदि आदत की बदौलत वैसा कथन करे कि 'यह पेड़ प्रासादयोग्य है' और वास्तव मैं वह पेड़ प्रासाद के योग्य न हो तथा वृक्ष के लक्षण को जाननेवाले गृहस्थ के कान पर वह बात भवितव्यतावश पडे तब उसको यह महसूस होता है कि यह साधु वृक्ष के लक्षणों का ज्ञान न होने पर भी मिथ्या बोलता है। इस तरह गृहस्थ के सामने साधु की लघुता भी होती है। ये अनेक दिक्कत होने के सबब तादृश वचन का प्रयोग साधु के लिए निषिद्ध है। कितना सूक्ष्म और अहिंसाप्रधान है प्रभु महावीर से बताया गया मोक्षमार्ग!
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विश्रमण. इति । निष्कारण बोलने का तो साधु-साध्वी के लिए निषिद्ध ही है। यदि साधु भगवंत विहार आदि करते हो और मार्ग में विश्राम करने का उद्देश हो या अन्य साधु को मार्ग आदि बताने का प्रयोजन हो, जिस उद्देश या प्रयोजन की सिद्धि के लिए पुरोवर्ती वृक्ष आदि का कथन करने की आवश्यकता हो तब जाति आदि गुणों से युक्त वृक्षों को बताना चाहिए अर्थात् वृक्ष की जाति आदि के सूचक विशेषणों से घटित शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। जैसे कि 'देखिए, सामने उत्तम जातिवाले अशोक आदि के पेड़ हैं वहाँ हम विश्राम करेंगे'। 'देखिए, जहाँ नालिकेर ताल आदि के लम्बे पेड़ हैं उनके सामने उपाश्रय है'। 'नंदी आदि वृत्त वृक्षों के सामने स्थंडिल जाने का मार्ग है' 'बड़े बड़े बड आदि के पेड़ की दाई और वैद्य की दुकान है'। 'लगता है कि यह भूमि दुष्काल आदि से मुक्त है, क्योंकि यहाँ के पेड़ अनेक शाखावाले, प्रशाखावाले, हरे, घने और दर्शनीय हैं। अतः यहाँ मुकाम करना मुनासिब होगा' । इस तरह प्रयोजन उपस्थित होने पर उपर्युक्त वचनों का प्रयोग करना चाहिए। स्पष्ट ही मालुम पडता है कि ये पेड प्रासाद के योग्य हैं' इत्यादि वाक्यों को सुन कर जो व्यंतरकोप वृक्षच्छेदनादि दोष की संभावना रहती है वह संभावना उपर्युक्त वाक्यों को सुनने पर नहीं रहती है। अतः जरूरत पड़ने पर उपर्युक्त वाक्यों का ही प्रयोग करना चाहिए ।
गाथा का सारांश यह है कि (१) बिना प्रयोजन के बोलना ही नहीं चाहिए (२) यदि जरूरत हो तब जिस वचन से अपने प्रयोजन की सिद्धि हो और दोष की संभावना न हो वैसा सत्य वचन बोलना चाहिए । । ९० ।।
गाथार्थ :- फल और औषधीओं के विषय में पक्वादि वचन का प्रयोग वचनकुशल पुरुष न करे। प्रयोजन उपस्थित होने पर असमर्थ प्ररूढादि वचन को बोलना चाहिए । । ९१ । ।
१ न फलेष्वौषधिषु च पक्वादिवचो वदेद्वचनकुशलः । असमर्थप्ररूढादि प्रयोजने पुनर्वदेद् वचनम् ।।९१।।